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राजप्रश्नीयसूत्र
७०– तदनन्तर वह सूर्याभदेव श्रमण भगवान् महावीर प्रभु से धर्मश्रवण कर और हृदय में अवधारित कर हर्षित एवं संतुष्ट यावत् आह्लादितहृदय हुआ। अपने आसन से खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार किया और इस प्रकार प्रश्न किया
___ 'भगवन् ! मैं सूर्याभदेव क्या भवसिद्धिक भव्य हूं अथवा अभवसिद्धिक अभव्य हूं ? सम्यग्दृष्टि हूं या मिथ्यादृष्टि हूं ? परित्त संसारी—परमित काल तक संसार में भ्रमण करने वाला हूं अथवा अनन्त संसारी अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करने वाला हूं ? सुलभबोधि सरलता से सम्यग्ज्ञानदर्शन की प्राप्ति करने वाला हूं अथवा दुर्लभबोधि हूं ? आराधक-बोधि की आराधना करने वाला हूं अथवा विराधक हूं ? चरम शरीरी हूं अथवा अचरम शरीरी हूं ?'
विवेचन— प्रस्तुत सूत्र में संसारी जीवों की चरम लक्ष्य प्राप्त करने की भावना का दिग्दर्शन कराया है। यद्यपि संसारी जीव अनादि काल से इस जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण करते आ रहे हैं, परन्तु चाहते यही हैं कि उस आत्मरमणता स्थिति को प्राप्त कर लूं कि जिसके पश्चात् न पुनर्जन्म है और न पुनःमरण है तथा न बार-बार के जन्ममरण के कारण सांसारिक आधि-व्याधियाँ हैं। यह आकांक्षा तभी सफल हो पाती है जब उस जीव में मुक्त होने की योग्यता पाई जाती है। ऐसी योग्यता उसी में पाई जाती है जो भव्य हो अर्थात् अभी न सही किन्तु कालान्तर में कभीन-कभी जिसे मुक्ति अवश्य प्राप्त होगी। इसीलिए सूर्याभदेव ने सर्वप्रथम भगवान् के समक्ष यही जिज्ञासा व्यक्त की कि हे भगवन् ! मैं मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता वाला—भव्य हूं अथवा नहीं हूं?
योग्यता होने पर मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब सम्यक् श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति, दृष्टि हो। सम्यक् श्रद्धा के न होने पर जीव चाहे भव्य (मुक्ति योग्य) हो किन्तु वह प्राप्त नहीं की जा सकती। इस तथ्य को समझने के लिए सूर्याभदेव ने दूसरा प्रश्न पूछा–मैं सम्यग्दृष्टि हूं अथवा नहीं हूं?
सम्यग्दृष्टि हो जाने पर भी यह निश्चित नहीं है कि सभी जीव शीघ्र मुक्ति प्राप्त करें। ऐसे जीव भी अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करने वाले हो सकते हैं और यह भी सम्भव है कि सीमित समय में मुक्ति प्राप्त कर लें। इसी बात को जानने के लिए पूछा-भगवन् ! मैं परिमितकाल तक संसारभ्रमण करने वाला हूं अथवा अनन्त काल तक मुझे संसार में भ्रमण करना पड़ेगा?
संसारभ्रमण का परिमित काल होने पर भी जीव तभी मुक्त हो सकता है जब तदनुकूल और तदनुरूप सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र का सुयोग-संयोग मिले। इसीलिए सूर्याभदेव ने भगवान् से यह जानना चाहा कि मैं सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्र की साधना करने में तत्पर हो सकूँगा? उनकी साधना करने का अवसर सुलभता से प्राप्त होगा अथवा नहीं?
सुलभबोधि होने पर भी सभी जीव सम्यग्ज्ञान आदि की यथाविधि आराधना करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। लोकैषणाओं, परीषह, उपसर्गों आदि के कारण आराधना से विचलित होकर लक्ष्य के निकट पहुंचने पर भी संसार में भटक जाते हैं। इसी स्थिति को समझने के लिए सूर्याभदेव ने भगवान् से पूछा—मैं आराधक ही रहूंगा अथवा भटक जाऊंगा? और सबसे अन्त में अपनी समस्त जिज्ञासाओं का निष्कर्ष जानने के लिए उत्सुकता से पूछा कि भव्य सुलभबोधि, आराधक आदि होने पर भी मुझे क्या मुक्ति प्राप्ति की काल-लब्धि प्राप्त हो चुकी है ? संसार में रहने का मेरा इसके बाद का भव अन्तिम है अथवा और दूसरे भी भवान्तर शेष हैं ?