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सूर्याभदेव की जिज्ञासा का समाधान
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इन कारणों से जीव देवों में उत्पन्न होते हैं—१. सरागसंयम, २. संयमासंयम, ३. अकामनिर्जरा, ४. बालतप–अज्ञान अवस्था में तप करना।
धर्म दो प्रकार का है—१. अगारधर्म, २. अनगारधर्म । अनगार धर्म का पालन वह जीव करता है जो सर्व प्रकार से मुंडित होकर गृहस्थ अवस्था—घर का त्याग कर श्रमण-प्रव्रज्या को अंगीकार कर अनगार बनता है। सर्वप्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रहविरमण और रात्रिभोजनविरमण व्रत को स्वीकार करता है। इस धर्म के पालन करने में जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी (साधु, साध्वी) प्रयत्नशील हो अथवा पालन करता हो वह आज्ञा का आराधक होता है।
अगारधर्म बारह प्रकार का बताया है—पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत। पांच अणुव्रत इस प्रकार हैं स्थूल प्राणातिपातविरमण, स्थूल मृषावादविरमण, स्थूल अदत्तादानविरमण, स्वदारसंतोष, इच्छा-परिग्रह की मर्यादा बांधना।
तीन गुणव्रत इस प्रकार हैं—अनर्थदंडविरमण, दिग्व्रत, उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रत।
चार शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं—सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास, अतिथि-संविभागवत और जीवनान्त के समय जो धारण किया जाता है एवं मरण निकट हो तब कषाय और काया को कृश करके प्रीतिपूर्वक जिसकी आराधना की जाती है ऐसा संलेखनाव्रत। यह बारह प्रकार का अगारसामायिक धर्म है।
इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित श्रावक या श्राविका आज्ञा के आराधक होते हैं।
भगवान् की इस देशना को सुनकर उस महती सभा में उपस्थित मनुष्यों में से अनेकों ने श्रमण दीक्षा ली, अनेकों ने पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहीधर्म अंगीकार किया।
शेष परिषदा ने अपने प्रमोदभाव को प्रकट करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और फिर कहा हे भदन्त! आप द्वारा सुआख्यात, सुप्रज्ञप्त, सुभाषित, सुविनीत, सुभावित निर्ग्रन्थप्रवचन अनुत्तर है। धर्म की व्याख्या करते हुए आपने उपशम क्रोधादि की शांति का उपदेश दिया है, उपशम के उपदेश के प्रसंग में आपने विवेक का व्याख्यान किया है, विवेक की व्याख्या करते हुए आपने प्राणातिपात आदि से विरत होने का निरूपण किया है, विरमण का उपदेश देने के प्रसंग में आपने पापकर्म नहीं करने का विवेचन किया है। आपसे भिन्न दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण इस प्रकार का उपदेश नहीं कर सकता है, तो फिर इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की बात कहां?
इस प्रकार से कह कर वह परिषदा जिस दिशा से आई थी, वापस उसी ओर लौट गई। सूर्याभदेव की जिज्ञासा का समाधान
७०– तए णं से सूरियाभे देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतु जाव हयहियए उठाए उठेति उद्वित्ता समणं भगवंतं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
'अहं णं भंते ! सूरियाभे देवे कि भवसिद्धिते, अभवसिद्धिते ? सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी ? परित्तसंसारिते, अणंतसंसारिते ? सुलभबोहिए, दुल्लभबोहिए ? आराहए, विराहए ? चरिमे, अचरिमे ?'