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राजप्रश्नीयसूत्र
भगवान् द्वारा दी गई धर्मदेशना इस प्रकार है
'लोक' का अस्तित्व है अलोक का अस्तित्व है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नारक, तिर्यंचयोनि, तिर्यंचयोनिज जीव, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि, सिद्ध, परिनिर्वाण-कर्मजनित आवरण से रहित जीवों का अस्तित्व है।
प्राणातिपात–हिंसा, मृषावाद असत्य, अदत्तादान—चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह, अभ्याख्यान पैशून्य परपरिवाद—निन्दा, रति, अरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य आदि वैभाविक भावों का अस्तित्व है।
प्राणातिपातविरमण–हिंसाविरति, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रहविरमण, मिथ्यादर्शनशल्यविरमण आदि आत्मा की विशद्धि करने वाले भावों का अस्तित्व है।
सभी अस्तिभाव स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा अस्तिरूप हैं और सभी नास्तिभाव परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा नास्तिरूप है।
सुआचरित शुद्धभावों से आचरण किए गए दान शील आदि कर्म-कार्य उत्तम फल देने वाले हैं और दुराचरित—पापकारी कार्य दुःखकारी फल देने वाले हैं। श्रेष्ठ उत्तम कार्यों से जीव पुण्य का और पाप कार्यों से पाप का उपार्जन करता है। संसारी जीव जन्म-मरण करते रहते हैं। शुभ और अशुभ कर्म-कार्य फल युक्त हैं—निष्फल नहीं हैं।
यह निर्ग्रन्थ प्रवचन–वीतराग भगवन्तों द्वारा उपदिष्ट धर्म, सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, सर्वात्मना शुद्ध, परिपूर्ण है, प्रमाण से अबाधित है, माया, मिथ्यात्व आदि शल्यों का निवारक है। सिद्धिमार्ग-सिद्धावस्था प्राप्त करने का उपाय है, मुक्तिमार्ग-कर्मरहित अवस्था प्राप्त करने का कारण है, निर्वाणमार्ग सकल संताप रहित आत्मदशा प्राप्त करने का हेतु है, निर्याणमार्ग पुनः जन्म-मरण रूप संसार से पार होने का मार्ग है, अवितथ—यथार्थ, अविसन्धि-विच्छेदरहित समस्त दुःखों को सर्वथा क्षय करनेवाला है। इसमें स्थित जीव सिद्धि प्राप्त करते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण दशा को प्राप्त करते हैं और समस्त सांसारिक दुःखों का अन्त करते हैं।
एका —जिनके एक ही मनुष्यभव धारण करना शेष रह गया है, ऐसे एक भवावतारी पूर्वकर्मों के शेष रहने से किन्हीं महर्द्धिक देवलोकों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं और वहां महान् ऋद्धिसम्पन्न दीर्घ आयु स्थिति वाले होते हैं। उनके वक्षःस्थल हार-मालाओं से सुशोभित होते हैं, और अपनी दिव्य प्रभा से सभी दिशाओं को प्रभासित करते हैं। वे कल्पोपपन्न या कल्पातीत देवों में उत्पन्न होते हैं। वे वर्तमान में भी उत्तम गति, स्थिति को प्राप्त करते हैं और भविष्य में कल्याणप्रद स्थान को प्राप्त करने वाले और असाधारण रूप से सम्पन्न होते हैं।
जीव महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय जीवों का वध और मांसाहार इन चार कारणों से नरकयोग्य कर्मों का उपार्जन करता है और नारक रूप में उत्पन्न होता है।
इन चार कारणों से जीव तिर्यंचगति को प्राप्त करता है और तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होता है—१. मायाचार, २. असत्यभाषण, ३. उत्कंचनता खुशामद या धूर्तता, ४. वंचनता—धोखा देना, ठगना। ।
इन कारणों से जीव मनुष्ययोनि में उत्पन्न होते हैं—१. प्रकृतिभद्रता, २. प्रकृतिविनीतता, ३. सानुक्रोशता— दयावृत्ति, ४. अमत्सरता ईर्ष्या का अभाव।