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________________ सूर्याभदेव का समवसरण में आगमन प्रवृत्ति पुरातन है यावत् हे सूर्याभ! संमत है।' ६८– तए णं से सूरियाभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ जाव तुट्ठचित्तमाणंदिएपीइमणे परमसोमणस्सिए हरिस-वस-विसप्पमाणहियए समणं भगवं महावीर वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासण्णे नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासति । ६८-तब वह सूर्याभ देव श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर अतीव हर्षित हुआ यावत् (संतुष्ट हुआ, मन में अति आनंदित हुआ, मन में प्रीति हुई, अत्यन्त अनुरागपूर्ण मनवाला हुआ, हर्षातिरेक से विकसित हृदयवाला हुआ) और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके न तो उनसे अधिक निकट और न अधिक दूर किन्तु यथोचित स्थान पर स्थित होकर शुश्रूषा करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, अभिमुख विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर अंजलि करके पर्युपासना करने लगा। ६९- तए णं समणे भगवं महावीरे सूरियाभस्स देवस्स तीसे य महतिमहालिताए परिसाए जाव (इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयवंदाए अणेगसयवंदपरिवाराए) धम्म परिकहेइ । परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूता तामेव दिसिं पडिगया । ६९- तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने सूर्याभदेव को, और उस उपस्थित विशाल परिषद् को यावत् (ऋषियों की सभा को, मुनियों की सभा को, यतियों की सभा को, देवों की सभा को, अनेक सौ संख्यावाली अनेक शत (सैकड़ों के) समूह वाली अनेकशतसमूह युक्त परिवार वाली सभा को) धर्मदेशना सुनाई। देशना सुनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी वापस उसी ओर लौट गई। विवेचन-'महतिमहालिताए' यह परिषद् का विशेषण है जिसका अर्थ यह है कि भगवान् की देशना सुनने के लिए सूर्याभदेव, सेयराजा, धारिणी आदि रानियों के सिवाय ऋषिपरिषदा, मुनिपरिषदा, यतिपरिषदा, देवपरिषदा के साथ हजारों नर नारी, उनके समूह और उन समूहों में भी बहुत से अपने-अपने सभी पारिवारिक जनों सहित उपस्थित थे। भगवान् के समवसरण में उपस्थित विशाल परिषदा और धर्मदेशना आदि का औपपातिक सूत्र में विस्तार से वर्णन किया गया है। संक्षेप में जिसका सारांश इस प्रकार है __ अप्रतिबद्ध बलशाली, अतिशय बलवान, प्रशस्त, अपरिमित बल, वीर्य, तेज, माहात्म्य एवं कांतियुक्त श्रमण भगवान् महावीर ने शरदकालीन नूतन मेघ की गर्जना जैसी गंभीर, क्रोंच पक्षी के निर्घोष तथा दुन्दुभिनाद के समान मधुर, वक्षस्थल में विस्तृत होती हुई, कंठ में अवस्थित होती हुई तथा मूर्धा में व्याप्त होती हुई, सुव्यक्त–स्पष्ट, वर्णपद की विकलता—हकलाहट आदि से रहित, सर्वअक्षर, सन्निपात—समस्त वर्गों के सुव्यवस्थित संयोग से युक्त, पूर्ण तथा माधुर्य गुणयुक्त स्वर से समन्वित, श्रोताओं की अपनी-अपनी भाषा में परिणत होने के स्वभाव वाली वाणी द्वारा राजा, रानी तथा सैकड़ों हजारों ऋषियों, मुनियों, यतिओं देवों आदि श्रोताओं के समूह वाली उस महती परिषदा को एक योजन तक पहुंचने वाले स्वर से अर्धमागधी भाषा में धर्मदेशना दी। भगवान् द्वारा उद्गीर्ण वह अर्धमागधी भाषा उन सभी आर्य-अनार्य श्रोताओं की भाषाओं में परिणत हो गई।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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