SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजप्रश्नीयसूत्र उस दिव्य यानविमान को खड़ा करके वह सपरिवार चारों अग्रमहिषियों, गंधर्व और नाट्य इन दोनों अनीकों सेनाओं को साथ लेकर पूर्व दिशावर्ती त्रिसोपान - प्रतिरूपक द्वारा उस दिव्ययान विमान से नीचे उतरा। तत्पश्चात् सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देव उत्तरदिग्वर्ती त्रिसोपान प्रतिरूपक द्वारा उस दिव्य यान — विमान से नीचे उतरे तथा इनके अतिरिक्त शेष दूसरे देव और देवियां दक्षिण दिशा के त्रिसोपान प्रतिरूपक द्वारा उस दिव्य - यान — विमान से उतरे । ४० सूर्याभदेव का समवसरण में आगमन ६६ — तए णं से सूरियाभे देवे चउहिं अग्गमहिसीहिं जाव' सोलसहिं आयरक्खदेव - साहस्सीहिं अण्णेहि य बहूहिं सूरियाभविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सव्वड्डी जाव णादितरवेणं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, करित्ता वंदति नम॑सति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी— 'अहं णं भंते ! सूरियाभे देवे देवाणुप्पियाणं वंदामि नम॑सामि जाव (सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं ) पज्जुवासामि ।' ६६— तदनन्तर वह सूर्याभदेव सपरिवार चार अग्रमहिषियों यावत् सोलह हजार. आत्मरक्षक देवों तथा अन्यान्य बहुत से सूर्याभविमानवासी देव-देवियों के साथ समस्त ऋद्धि-वैभव यावत् वाद्य निनादों सहित चलता हुआ श्रमण भगवान् महावीर के समीप आया। आकर श्रमण भगवान् की दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन - नमस्कार किया और वन्दन - नमस्कार करके — सविनय नम्र होकर बोला ६७ 'हे भदन्त ! मैं सूर्याभदेव आप देवानुप्रिय को वन्दन करता हूं, नमन करता हूं यावत् आपका (सत्कार - सन्मान करता हूं और कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप एवं चैत्यरूप आपकी ) पर्युपासना करता हूं।' - 'सूरियाभा' इ समणे भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वयासी— पोराणमेयं सूरियाभा ! जीयमेयं सूरियाभा ! किच्चमेयं सूरियाभा ! करणिज्जमेयं सूरियाभा ! आइण्णमेयं सूरियाभा ! अब्भणुण्णायमेयं सूरियाभा ! जं णं भवणवइ-वाणमंतर - जोइस-वेमाणिया देवा अरहंते भगवंते वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता तओ पच्छा साई साइं नाम-गोत्ताइं साहिंति, तं पोराणमेयं सूरियाभा ! जावर अब्भणुण्णायमेयं सूरियाभा ! ६७– 'हे सूर्याभ!' इस प्रकार से सूर्याभदेव को संबोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने उस सूर्याभदेव से इस प्रकार कहा—' हे सूर्याभ ! यह पुरातन है। हे सूर्याभ ! यह जीत - परम्परागत व्यवहार है । हे सूर्याभ ! यह कृत्य है । हे सूर्याभ ! यह करणीय है । हे सूर्याभ ! यह पूर्व परम्परा से आचरित है । हे सूर्याभ ! यह अभ्यनुज्ञात-सम्मत है कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अरिहंत भगवन्तों को वन्दन करते हैं, नमन करते हैं और वन्दननमस्कार करने के पश्चात् वे अपने-अपने नाम और गोत्र का उच्चारण करते हैं । अतएव हे सूर्याभ ! तुम्हारी यह सारी २. देखें सूत्र संख्या १९ १. ३. देखें सूत्र संख्या ७ देखें सूत्र संख्या १४
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy