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सूर्याभदेव का आमलकप्पा नगरी की ओर प्रस्थान
जाव' सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं य बहूहि सूरियाभविमाणवासिहिं वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीए जाव' रवेणं सोधम्मस्स कप्पस्स मझमझेणं तं. दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं उवलालेमाणे उवलालेमाणे उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे पडिजागरेमाणे पडिजागरेमाणे जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिल्ले णिज्जाणमग्गे तेणेव उवागच्छति, जोयणसयसाहस्सितेहिं विग्गहेहिं ओवयमाणे वीईवयमाणे ताए उक्किट्ठाए जाव तिरियं असंखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मझमझेणं वीइवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव नंदीसरवरे दीवे, जेणेव दाहिणपुरथिमिल्ले रतिकरपव्वते, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं दिव्वं देविढेि जाव दिव्वं देवाणुभावं पडिसाहरेमाणे पडिसाहरेमाणे पडिसंखेवेमाणे पडिसंखेवेमाणे जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव आमलकप्पा नयरी जेणेव अंबसालवणे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तेणं दिव्वेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स उत्तरपुरित्थिमे दिसिभागे तं दिव्वं जाणविमाणं ईसि चउरंगुलमसंपत्तं धरणितलंसि ठवेइ, ठवित्ता चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, दोहिं अणीयाहिं, तं जहा—गंधव्वाणिएण य णट्टाणिएण य-सद्धिं संपरिवुडे ताओ दिव्वाओ, जाणविमाणाओ पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहति । ___तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति अवसेसा देवा य देवीओ य ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति ।
६५- तत्पश्चात् पांच अनीकाधिपतियों द्वारा परिरक्षित वज्ररत्नमयी गोल मनोज्ञ संस्थान —आकारवाले यावत् एक हजार योजन लम्बे अत्यन्त ऊंचे महेन्द्रध्वज को आगे करके वह सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों एवं सूर्याभविमानवासी और दूसरे वैमानिक देव-देवियों के साथ समस्त ऋद्धि यावत् वाद्यनिनादों सहित दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव-प्रभाव का अनुभव, प्रदर्शन और अवलोकन करते हुए सौधर्मकल्प के मध्य भाग में से निकलकर सौधर्मकल्प के उत्तरदिग्वर्ती निर्याण मार्ग निकलने के मार्ग के पास आया और एक लाख योजन प्रमाण वेग वाली यावत् उत्कृष्ट दिव्य देवगति से नीचे उतर कर गमन करते हुए तिरछे, असंख्यातद्वीप समुद्रों के बीचोंबीच से होता हुआ नन्दीश्वरद्वीप और उसकी दक्षिणपूर्ण दिशा (आग्नेय कोण) में स्थिर रतिकर पर्वत पर आया। वहां आकर उस दिव्य देव ऋद्धि यावत् दिव्य देवानुभाव को धीरे-धीरे संकुचित और संक्षिप्त करके जहां जम्बूद्वीप नामक द्वीप और उसका भरत क्षेत्र था एवं उस भरतक्षेत्र में भी जहां आमलकप्पा नगरी तथा आम्रशालवन चैत्य था और उस चैत्य में भी जहां श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहां आया, वहां आकर उस दिव्य-यान—विमान के साथ श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके श्रमण भगवान् महावीर की अपेक्षा उत्तरपूर्व दिग्भाग-ईशानकोण में ले जाकर भूमि से चार अंगुल ऊपर अधर रखकर उस दिव्य-यान को खड़ा किया। १. देखें सूत्र संख्या ७ २. देखें सूत्र संख्या ६४ ३. देखें सूत्र संख्या १३