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________________ २६ राजप्रश्नीयसूत्र पडिरुवए विउव्वति, तं जहा—पुरथिमेणं, दाहिणेणं, उत्तरेणं, तेसिं तिसोवाणपडिरूवगाणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा वइरामया णिम्मा, रिट्ठामया पतिट्ठाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्ण-रुप्पमया फलगा लोहितक्खमइयाओ सूईओ, वयरामया संधी, णाणामणिमया अवलंबणा, अवलंबणबाहाओ य, पासादीया जाव' पडिरूवा । २५– इसके अनन्तर (विमान रचना के लिए प्रवृत्त होने के अनन्तर) सर्वप्रथम आभियोगिक देवों ने उस दिव्ययान-विमान की तीन दिशाओं—पूर्व, दक्षिण और उत्तर में विशिष्ट रूप-शोभासम्पन्न तीन सोपानों (सीढ़ियों) वाली तीन सोपान पंक्तियों की रचना की। वे रूपशोभा सम्पन्न सोपान पंक्तियां इस प्रकार की थीं— इनकी नेम (भूमि से ऊपर निकला प्रदेश, वेदिका) वज्ररत्नों से बनी हुई थी। रिष्ट रत्नमय इनके प्रतिष्ठान (पैर रखने को स्थान) और वैडूर्य रत्नमय स्तम्भ थे। स्वर्ण-रजत मय फलक (पाटिये) थे। लोहिताक्ष रत्नमयी इनमें सूचियां कीलें लगी थीं। वज्ररत्नों से इनकी संधियां (सांधे) भरी हुई थीं, चढ़ने-उतरने में अवलंबन के लिए अनेक प्रकार के मणिरत्नों से बनी इनकी अवलंबनवाहा थीं तथा ये त्रिसोपान पंक्तियां मन को प्रसन्न करने वाली यावत् असाधारण सुन्दर थी। २६- तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणं पण्णत्तं, तेसि णं तोरणाणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा—तोरणा णाणामणिमया णाणामणिमएसु थम्भेसु उवनिविट्ठसंनिविट्ठा विविहमुत्तन्तरारूवोवचिया विविहतारारूवोवचिया जाव पासाइया दरिसणिज्जा, अभिरूवा पडिरूवा । २६– इन दर्शनीय मनमोहक प्रत्येक त्रिसोपान-पंक्तियों के आगे तोरण बंधे हुए थे। उन तोरणों का वर्णन इस प्रकार का है वे तोरण मणियों से बने हुए थे। गिर न सकें, इस विचार से विविध प्रकार के मणिमय स्तंभों के ऊपर भलीभांति निश्चल रूप से बांधे गये थे। बीच के अन्तराल विविध प्रकार के मोतियों से निर्मित रूपकों से उपशोभित थे और सलमा सितारों आदि से बने हुए तारा-रूपकों बेल कूटों से व्याप्त यावत् (मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप-मनाकर्षक और) अतीव मनोहर थे। २७– तेसि णं तोरणाणं उप्पिं अट्ठ मङ्गलगा पण्णत्ता, तं जहा—सोत्थिय-सिरिवच्छणन्दियावत्त-वद्धमाणग-भद्दासण-कलस-मच्छ-दप्पणा जाव (सव्वरयणमया अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्ठा, मट्ठा, णीरया निम्मला, निप्पंका, निक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा) पडिरूवा । २७– उन तोरणों के ऊपरी भाग में स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्दिकावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्ययुगल और दर्पण, इन आठ-आठ मांगलिकों की रचना की। जो (सर्वात्मना रत्नों से निर्मित अतीव स्वच्छ, चिकने, घर्षित, मृष्ट, नीरज, निर्मल, निष्कलंक, दीप्त प्रकाशमान चमकीले शीतल प्रभायुक्त मनाह्लादक, दर्शनीय, अभिरूप और १. देखें सूत्र संख्या १
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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