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________________ आभियोगिक देवों द्वारा विमान रचना २३– इसके पश्चात् विलम्ब किये बिना उन सभी सूर्याभविमानवासी देवों और देवियों को अपने सामने उपस्थित देखकर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हो सूर्याभदेव ने अपने आभियोगिक देव को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय! तुम शीघ्र ही अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट बने हुए एक यान-विमान की विकुर्वणारचना करो। जिसमें स्थान-स्थान पर हाव-भाव-विलास लीलायुक्त अनेक पुतलियां स्थापित हों। ईहामृग, वृषभ, तुरग, नर (मनुष्य), मगर, विहग (पक्षी), सर्प, किन्नर, रुरु (मृगों की एक जाति विशेष बारहसिंगा अथवा कस्तूरीमृग), सरभ (अष्टापद), चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित हों। जो स्तम्भों पर बनी वज्र रत्नों की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखलाई दे। समश्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यंत्रचालित जैसे दिखलाई दें। हजारों किरणों से व्याप्त एवं हजारों रूपकों चित्रों से युक्त होने से जो देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान जैसा प्रतीत हो। देखते ही दर्शकों के नयन जिसमें चिपक जायें। जिसका स्पर्श सुखप्रद और रूप शोभासम्पन्न हो। हिलने-डुलने पर जिसमें लगी हुई घंटावलि से मधुर और मनोहर शब्द-ध्वनि हो रही हो। जो वास्तुकला से युक्त होने के कारण शुभ कान्त—कमनीय और दर्शनीय हो। निपुण शिल्पियों द्वारा निर्मित, देदीप्यमान मणियों और रत्नों के धुंघरुओं से व्याप्त हो, एक लाख योजन विस्तार वाला हो। दिव्य तीव्रगति से चलने की शक्तिसामर्थ्य सम्पन्न एवं शीघ्रगामी हो। इस प्रकार के यान-विमान की विकुर्वणा-रचना करके हमें शीघ्र ही इसकी सूचना दो। २४– तए णं से आभिओगिए देवे सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ जाव' हियए करयलपरिग्गहियं जाव' पडिसुणेइ जाव पडिसुणेत्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणइ समोहणित्ता संखेन्जाइं जोयणाइं जावं अहाबायरे पोग्गले परिसाडति परिसाडित्ता अहासुहुमे पोग्गले परियाएइ परियाइत्ता दोच्चं पि वेउव्विय समुग्घाएणं समोहणित्ता अणेगखम्भसयसन्निविटुं जाव' दिव्वं जाणविमाणं विउव्विउं पवत्ते यावि होत्था । २४– तदनन्तर वह आभियोगिक देव सूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार आदेश दिए जाने पर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ यावत् प्रफुल्ल हृदय हो दोनों हाथ जोड़ यावत् आज्ञा को सुना यावत् उसे स्वीकार करके वह उत्तर-पूर्व दिशाईशानकोण में आया। वहां आकर वैक्रिय समुद्घात किया और समुद्घात करके संख्यात योजन ऊपर-नीचे लंबा दण्ड बनाया यावत् यथाबादर (स्थूल-असार) पुद्गलों को अलग हटाकर सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया, ग्रहण करके दूसरी बार पुनः वैक्रिय समुद्घात करके अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर सन्निविष्ट यावत् दिव्ययान-विमान की विकुर्वणा (रचना) करने में प्रवृत्त हो गया। आभियोगिक देवों द्वारा विमान रचना २५– तए णं से आभिओगिए देवे तस्स दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसिं तिसोवाण१. देखें सूत्र संख्या १३ २. देखें सूत्र संख्या १३ ३. देखें सूत्र संख्या १३ ४. देखें सूत्र संख्या १३ ५. देखें सूत्र संख्या १३
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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