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________________ २४ राजप्रश्नीयसूत्र हिवइस्स देवस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव' हियया अप्पेगइया वंदणवत्तियाए, अप्पेगइया पूयणवत्तियाए, अप्पेगइया सक्कारवत्तियाए अप्पेगइया संमाणवत्तियाए अप्पेगइया कोऊहलजिणभत्तिरागेणं, अप्पेगइया सूरियाभस्स देवस्स वयणमणुयत्तेमाणा, अप्पेगइया अस्सुयाई सुणेस्सामो, अप्पेगइया सुयाइं निस्संकियाई करिस्सामो, अप्पेगतिया अन्नमन्नमणुयत्तमाणा, अप्पेगइया जिणभत्तिरागेणं, अप्पेगइया 'धम्मो' त्ति, अप्पेगइया 'जीयमेयं' ति कटु सव्विड्डीए जाव अकालपरिहीणा चेव सूरियाभस्स देवस्स अंतियं पाउब्भवंति । २२– तदनन्तर पदात्यनीकाधिपति देव से इस बात (सूर्याभदेव की आज्ञा) को सुनकर सूर्याभविमानवासी सभी वैमानिक देव और देवियां हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहृदय हो, कितने ही वन्दना करने के विचार से, कितने ही पर्युपासना करने की आकांक्षा से, कितने ही सत्कार करने की भावना से, कितने ही सम्मान करने की इच्छा से, कितने ही जिनेन्द्र भगवान् के प्रति कुतूहलजनित भक्ति-अनुराग से, कितने ही सूर्याभदेव की आज्ञा पालन करने के लिए, कितने ही अश्रुतपूर्व (जिसको पहले नहीं सुना) को सुनने की उत्सुकता से, कितने ही सुने हुए अर्थविषयक शंकाओं का समाधान करके निःशंक होने के अभिप्राय से, कितने ही एक दूसरे का अनुसरण करते हुए, कितने ही जिनभक्ति के अनुराग से, कितने ही अपना धर्म (कर्तव्य) मानकर और कितने ही अपना परम्परागत व्यवहार समझकर सर्व ऋद्धि के साथ यावत् बिना किसी विलम्ब के तत्काल सूर्याभदेव के समक्ष उपस्थित हो गये। विवेचन— यहां मानवीय रुचि की विविधरूपता का चित्रण किया गया है कि कार्य के एक समान होने पर भी प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार उसमें प्रवृत्त होता है। इसीलिए लोक को विभिन्न रुचि वाला बताया गया है। जैनसिद्धान्त के अनुसार इस प्रकृति स्वभावजन्य विविधता का कारण कर्म है 'कर्मजं लोकवैचित्र्यं तत्स्वभावानुकारणम्।' सूर्याभदेव द्वारा विमाननिर्माण का आदेश २३- तए णं सूरियाभे देवे ते सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य अकालपरिहीणा चेव अन्तियं पाउब्भवमाणे पासति, पासित्ता हट्ठतुट्ठ जाव' हियए आभिओगियं देवं सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! अणेगखम्भसयसंनिविलृ लीलट्ठियसालभंजियागं, ईहामियउसभ-तुरग-नर-मगर-विहग-वालग-किंनर-रुरु-सरभ-चमर-कुञ्जर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्तं खंभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तंपिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं घण्टावलिचलियमहुरमणहरसरं सुहं कन्तं दरिसणिज्जं णिउणउचियभिसिभिसिंतमणिरयणघण्टियाजालपरिक्खित्तं जोयणसयसहस्सवित्थिण्णं दिव्वं गमणसज्जं सिग्घगमणं णाम जाणविमाणं विउव्वाहि, विउव्वित्ता खिप्पामेव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि । १-२. देखें सूत्र संख्या १९ ३ देखें सूत्र संख्या ८
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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