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________________ १४ राजप्रश्नीयसूत्र कारण पुरुषों में सिंह के समान, सौम्य होने से पुरुषों में श्रेष्ठ कमल के समान, पुरुषों में उत्तम गंधहस्ती के समान (जैसे गंधहस्ती की गंध से अन्य हाथी भाग जाते हैं उसी प्रकार जिनके पुण्य प्रभाव से ही ईति भीति का विनाश हो जाता है, ऐसे) लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करने वाले अथवा लोक के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले बताने वाले, अभय देने वाले, श्रद्धा-ज्ञान- रूप नेत्र के दाता, धर्म (चारित्र) मार्ग के दाता, , जीवों पर दया रखने का उपदेश देने वाले, शरणदाता, बोधिदाता देशविरति, सर्वविरति रूप धर्म के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथी, चतुर्गति रूप संसार का अंत करने वाले धर्म के चक्रवर्ती, अव्याघात (प्रतिहत न होने वाले) केवल ज्ञान-दर्शन के धारक, घाति कर्म रूपी छद्म के नाशक, रागादि आत्मशत्रुओं को जीतने वाले, कर्मशत्रुओं को जीतने के लिए अन्य जीवों को प्रेरित करने वाले, संसार - सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तिरने का उपदेश देने वाले, बोध (केवल - ज्ञान) को प्राप्त करने वाले और उपदेश द्वारा दूसरों को बोध प्राप्त कराने वाले, स्वयं कर्म - बंधन से मुक्त और उपदेश द्वारा दूसरों को मुक्त कराने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी शिव उपद्रव रहित, कल्याण रूप, अचल–अचल स्थान (सिद्धिस्थान) को प्राप्त हुए, अरु —— शारीरिक व्याधि वेदना से रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति - जिसको प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में जन्म नहीं होता, ऐसे पुनरागमन से रहित - सिद्धि गति नामक स्थान में स्थित सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो । धर्म की आदि करने वाले, तीर्थंकर - ( साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप ) चतुर्विध संघ - तीर्थ की स्थापना करने वाले, यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने की ओर अग्रसर श्रमण भगवान् महावीर को मेरा नमस्कार हो । तत्रस्थ अर्थात् जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में स्थित आमलकप्पा नगरी के आम्रशालवन चैत्य में विराजमान भगवान् को अत्रस्थ — यहां रहा हुआ मैं वंदना करता हूं। वहां पर रहे हुए वे भगवान् यहां रहे हुए मुझे देखते हैं। इस प्रकार स्तुति करके वन्दन - नमस्कार किया। वंदन - नमस्कार करके फिर पूर्व दिशा की ओर मुख करके श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया । सूर्याभदेव की आभियोगिक देवों को आज्ञा १० – तए णं तस्स सूरियाभस्स इमे एतारूवे अज्झत्थिते चिंतिते पत्थिते मणोगते संकप्पे समुज्जित्था । १० – तत्पश्चात् उस सूर्याभ देव के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक अर्थात् आन्तरिक, चिन्तित, प्रार्थित — प्राप्त करने योग्य, इष्ट और मनोगत —— मन में रहा हुआ (मानसिक) संकल्प उत्पन्न हुआ। ११ –— सेयं खलु मे समणे भगवं महावीरे जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए णयरीए बहिया अम्बसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तं महाफलं खलु तहारूवाणं भगवन्ताणं णाम - गोयस्स वि सवणयाए किमङ्ग पुण अभिगमण - वन्दण- णमंसण-पडिपुच्छण- पज्जुवासणयाए ? एगस्सवि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमङ्ग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामि णं समणं भगवं
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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