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सूर्याभदेव द्वारा भगवान् की स्तुति तलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निमेइ, निमित्ता ईसिं पच्चुन्नमइ पच्चुन्नमित्ता कडयतुडियथंभिभुयाओ साहरइ साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी
८- उस समय अर्थात् विपुल अवधि ज्ञानोपयोग द्वारा जम्बूद्वीप के दर्शन में प्रवर्तमान होने के समय उसने जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में आमलकप्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में यथा प्रतिरूप अवग्रह ग्रहण कर— साधु के लिए उचित स्थान की याचना करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को देखा। देखकर वह हर्षित और अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ, उसका चित्त आनंदित हो उठा। मन में प्रीति उत्पन्न हुई, अतीव सौमनस्य को प्राप्त हुआ, हर्षातिरेक से उसका हृदय वक्षस्थल फूल गया, नेत्र और मुख विकसित श्रेष्ठ कमल जैसे हो गये। अपार हर्ष के कारण पहने हुए श्रेष्ठ कटक, त्रुटित, केयूर, मुकुट और कुण्डल चंचल हो उठे, वक्षस्थल हार से चमचमाने लगा, पैरों तक लटकते प्रालंब—आभूषण विशेष—झूमके विशेष चंचल हो उठे और उत्सुकता, तीव्र अभिलाषा से प्रेरित हो वह देवश्रेष्ठ सूर्याभ देव शीघ्र ही सिंहासन से उठा। उठकर पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरा। नीचे उतर कर पादुकायें उतारी। पादुकायें उतार कर एकशाटिक उत्तरासंग किया। उत्तरासंग करके तीर्थंकर के अभिमुख सात-आठ डग चला, अभिमुख चलकर बांया घुटना ऊंचा रखा और दाहिने घुटने को नीचे भूमि पर टेक कर तीन बार मस्तक को पृथ्वी पर नमाया-झुकाया, फिर मस्तक कुछ ऊंचा उठाया। तत्पश्चात् कटक त्रुटितबाजूबंद से स्तंभित दोनों भुजाओं को मिलाया। मिला कर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उसने इस प्रकार कहा-.
विवेचन— आन्तरिक हर्ष का उद्रेक होने पर शरीर पर उसका जो असर-प्रभाव दिखता है, उसका इस सूत्र में सुन्दर वर्णन किया है।
९- नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आदिगराणं तित्थगराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुण्डरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिआणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं जीवदयाणं सरणदयाणं दीवो ताणं (सरणं गई पइट्ठा) बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं अप्पडिहयवरनाण-दसणधराणं वियदृछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं सिवं अयलं अरुयं अणंतं अक्खयं अव्वाबाहं अपुणरावत्तियं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं ।। ___नमोऽथु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स तित्थयरस्स जाव' संपाविउकामस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगते, पासइ मे भगवं तत्थगते इहगतं ति कटु वंदति णमंसति, वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरगए पुव्वाभिमुहं सण्णिसण्णे ।
९- अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो, श्रुत-चारित्र धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, अन्य के उपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रुओं का विनाश करने में पराक्रमी होने के १. देखें सूत्र संख्या ९ (सयं संबुद्धाणं.......ठाणं पद तक)