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________________ राजप्रश्नीयसूत्र दूसरे बहुत से सूर्याभ विमानवासी वैमानिक देव - देवियों सहित अव्याहत निरन्तर नाट्य एवं निपुण पुरुषों द्वारा वादित—बताये जा रहे तंत्री वीणा हस्तताल, कांस्यताल और अन्यान्य वादित्रों — वाद्यों तथा घनमृदंग — मेघ के समान ध्वनि करने वाले मृदंगों की ध्वनि (आवाज) के साथ दिव्य भोगने योग्य भोगों को भोगता हुआ विचर रहा था। उस समय उसने अपने विपुल अवधिज्ञानोपयोग द्वारा निरखते हुए इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीपनामक द्वीप को देखा। विवेचन—– सूत्र में सूर्याभदेव के सभावैभव का वर्णन है। सभा में उपस्थित देव - देवियों का निर्देश इन शब्दों में किया है— १२ सामानिक देव— आज्ञा और ऐश्वर्य के अतिरिक्त ये सभी देव विमानाधिपति देव के समान द्युति, वैभव आदि से संपन्न होते हैं और इनको भाई आदि के तुल्य आदर-सम्मान योग्य माना जाता है। अग्रमहिषी— कृताभिषेका राजा की पत्नी महिषी और शेष अकृताभिषेका अन्य स्त्रियां भेगिनी कहलाती हैं (या कृताभिषेका नृपस्त्री सा महिषी, अन्या अकृताभिषेका नृपस्त्रियो भोगिन्य इत्युच्यन्ते —— अमरकोश द्वितीय कांड, मनुष्यवर्ग, श्लोक - ५) । अपनी परिवारभूता अन्य सभी पत्नियों में उसकी अग्रता – प्रधानता, मुख्यता — बताने के लिए महिषी के साथ अग्र विशेषण का प्रयोग किया जाता है। तीन परिषदा — सभी विमानाधिपति देवों की— १. अभ्यन्तर, २. मध्यम और ३. बाह्य ये तीन परिषदायें होती हैं। जिनसे अपने अंतरंग, गुप्त गूढ़ रहस्यों के लिए विचार किया जाता है, ऐसे परमविश्वसनीय समवयस्क मित्र समुदाय को अभ्यन्तरपरिषद, अभ्यन्तर परिषद में चर्चित एवं निर्णीत विचारों के लिए जिससे सम्मति, राय ली जाती है, उसे मध्यमपरिषद और अभ्यन्तर तथा मध्यम परिषद द्वारा विचारित, निर्णीत एवं सम्मत कार्य को क्रियान्वित करने का दायित्व जिसे दिया जाता है, उसे बाह्यपरिषद कहते हैं। सात सेनायें अश्व, गज, रथ, पदाति, वृषभ (बैल), गंधर्व और नाट्य ये सेनाओं के सात प्रकार हैं। इनमें से आदि की पांच का युद्धार्थ और अंतिम दो का आमोद-प्रमोद के लिए उपयोग किया जाता है और ये अपने अपने अधिपति के नेतृत्व में कार्य संपादित करने में सक्षम होने से इनके सात सेनापति होते हैं । आत्मरक्षक देव शिरस्त्राण जैसे प्राणरक्षक होता है, उसी प्रकार ये देव भी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने अधिपतिदेव की रक्षा करने में तत्पर रहने से आत्मरक्षक कहलाते हैं। यद्यपि इन्द्र आदि देवों को किसी का भय नहीं होता कि आत्मरक्षकों की आवश्यकता हो, मगर यह भी इन्द्र का एक वैभव है। सूर्याभदेव द्वारा भगवान् की स्तुति ८ – तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए नगरीए बहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं पासति, पासित्ता हट्ठतु चित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए विकसियवरकमलणयणे पयलियवरकडग - तुडिय - केऊर-मउड- कुंडलहारविरायंतरइयवच्छे, पालंबलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं सुरवरे सीहासणाओ अब्भुट्ठेड़, अब्भुट्ठित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहति, पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ, ओमुयइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेति, करित्ता तित्थयराभिमुहे सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, दाहिणं जाणुं धरणि
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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