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________________ सूर्याभदेव द्वारा जम्बूद्वीप दर्शन के बीचोंबीच से होकर निकला, निकल कर आम्रशालवन चैत्य की ओर चला और श्रमण भगवान् महावीर से न अतिदूर और न अति समीप किन्तु यथायोग्य स्थान से तीर्थंकरों के अतिशय रूप छत्र-पर- छत्र और पताकाओं-परपताका आदि को देखा, देखकर आभिषेक्य हस्तिरत्न को रुकवाया। रोक कर आभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा । उतर कर (१) खड्ग-तलवार, (२) छत्र, (३) मुकुट, (४) उपानह जूता और (५) चामर इन पांच राजचिह्नों का परित्याग किया, परित्याग करके जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया। आकर पांच अभिगम करके श्रमण भगवान् महावीर के सन्मुख पहुंचा। वे पांच अभिगम इस प्रकार हैं— (१) पुष्प माला आदि सचित्त द्रव्यों का त्याग, (२) वस्त्र आदि अचित्त द्रव्यों का अत्याग — त्याग नहीं करना, ११ (३) एक शाटिका ( अखंड वस्त्र दुपट्टा) का उत्तरासंग, (४) भगवान् पर दृष्टि पड़ते ही अंजलि करना — दोनों हाथ जोड़ना, (५) मन को एकाग्र करना । इन पांचों अभिगमपूर्वक सम्मुख आकर श्रमण भगवान् महावीर की आदक्षिण-दक्षिण दिशा से आरंभ करके • तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन नमस्कार किया । वन्दन, नमस्कार करके त्रिविध— तीन प्रकार की पर्युपासना से प्रभु की उपासना करने लगा। विवेचन — 'तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासइ' तीन प्रकार की पर्युपासना से उपासना करने लगा। सेवा, भक्ति करने को पर्युपासना कहते हैं। सेवाभक्ति श्रद्धा प्रधान है और श्रद्धा की अभिव्यक्ति के तीन साधन हैं— मन, वचन और काय । अतएव श्रद्धा की परम स्थिति को प्राप्त करने के लिए इन तीनों में तादात्म्य — एकरूपता होना आवश्यक है । इसी दृष्टि से सूत्र में 'तिविहाए' तीनों प्रकार से उपासना करने का उल्लेख किया है। कायिक अंग प्रत्यंगों की सम्मान प्रकट करने वाली चेष्टा कायिक उपासना, वक्ता के कथन का समर्थन करना वाचिक उपार तथा मन को केन्द्रित करके कथन को सुनना और अनुमोदन करते हुए स्वीकार करना मानसिक उपासना कह है। सूर्याभदेव द्वारा जम्बूद्वीपदर्शन 16 तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियाभे देवे सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे सभाए सुहम्मा सूरियाभंसि सिंहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं, चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अणिएहिं, सत्तहिं अणियाहिवईहिं, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अन्नेहिं बहूहिं सूरियाभविमाणवासीहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे महयाहय नट्ट - गीय-वाइय-तंती - तल-ताल-तुडिय - घणमुइंगपडुप्पवादियरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुञ्जमाणे विहरति । इमं च णं केवलकप्पं जम्बुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे- आभोएमाणे पासति । ७ उस काल में अर्थात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के विहरण काल में और उस समय में अर्थात् भगवान् के आमलकप्पा नगरी के आम्रशालवन चैत्य में विराजने के समय में सूर्याभ नामक देव सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ नामक विमान की सुधर्मा सभा में सूर्याभ सिंहासन पर बैठकर चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों सेनाओं, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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