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________________ सूर्याभदेव द्वारा आभियोगिक देवों को आज्ञा १५ महावीरं वन्दामि णमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मङ्गलं देवयं चेतियं पज्जुवासामि, एयं मे पेच्चा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता आभिओगे देवे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी— ११ – जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में स्थित आमलकप्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में यथाप्रतिरूप साधु के योग्य — अवग्रह को लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर विराजमान हैं। मेरे लिए श्रेय रूप हैं। जब तथारूप भगवन्तों के मात्र नाम और गोत्र के श्रवण करने का ही महाफल होता है तो फिर उनके समक्ष जाने का, उनको वंदन करने का, नमस्कार करने का, उनसे प्रश्न पूछने का और उनकी उपासना करने का प्रसंग मिले तो उसके विषय में कहना ही क्या है ? आर्य पुरुष के एक भी धार्मिक सुवचन सुनने का ही जब महाफल प्राप्त होता है तब उनके पास से विपुल अर्थ - उपदेश ग्रहण करने के महान् फल की तो बात क्या है ! इसलिए मैं जाऊं और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करूं, नमस्कार करूं, उनका सत्कार-सम्मान करूं और कल्याणकारी होने से कल्याण रूप, सब अनिष्टों का उपशमन करने वाले होने से मंगलरूप, त्रैलोक्याधिपति होने से देवरूप और सुप्रशस्त ज्ञान — केवलज्ञान वाले होने से चैत्य स्वरूप उन भगवान् की पर्युपासना करूं । (श्रमण भगवान् महावीर की पर्युपासना) मेरे लिए अनुगामी रूप से परलोक में हितकर, सुखकर, क्षेमकर — शांतिकर, निःश्रेयस्कर — कल्याणकर – मोक्ष प्राप्त कराने वाली होगी, ऐसा उसने (सूर्याभदेव ने ) विचार किया। विचार करके अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा। विवेचन — टीकाकार खम-क्षम का अर्थ संगति बताते हैं— क्षमाय संगतत्वाय (रायपसेणइय पृ. १०२ आगमोदय समिति ) । क्रोध की उपशांति को क्षमा कहते हैं और क्रोध की उपशांति सुख-शांति कल्याण करने वाली होने से यहां खमाएका क्षेमकर, शान्तिकर यह अर्थ लिया है। आभियोगिक देव जैसे हमारे यहां घरेलू काम करने के लिए वेतनभोगी भृत्य नौकर होते हैं, उसी प्रकार की स्थिति देवलोक में आभियोगिक देवों की है। वे अपने स्वामी देव की आज्ञा का पालन करने के लिए नियुक्त रहते हैं। अर्थात् अपने स्वामी देव की आज्ञा का पालन करने वाले भृत्य — सेवक स्थानीय देवों को आभियोगिक देव कहा जाता है। १२ – एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए नगरीए बहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तं गच्छहणं तुम्हे देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं आमलकप्पं यरिं अंबसालवणं चेइयं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेह, करेत्ता वंदह णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता साईं साईं नामगोयाइं साहेह, साहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं जं किंचि तणं वा पत्तं वा कट्टं वा सक्करं वा असुइं वा अचोक्खं वा पूइअं दुब्भिगन्धं तं सव्वं आहुणिय आहुणिय एगंते एडेह, एडेत्ता — णच्चोदगं णाइमट्टियं '
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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