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था? जब आत्मा दिखाई नहीं दिया तो उसे अपना मत सही ज्ञात हुआ कि जीव और शरीर अभिन्न हैं। किन्तु उसके सभी तर्कों का केशी कुमारश्रमण ने इस प्रकार रूपकों के माध्यम से निरसन किया कि राजा प्रदेशी को आत्मा और शरीर पृथक्-पृथक् स्वीकार करने पड़े।
स्वर्ग और नरक से जीव क्यों नहीं आकर कहते हैं कि हमने प्रबल पुण्य की आराधना की जिसके फलस्वरूप मैं देव बना हूं, मैंने पापकृत्य किया जिसके कारण मैं नरक में दारुण वेदनाओं को भोग रहा हूं, इसलिए मैं तुम्हें कहता हूं कि तुम पाप से बचो और पुण्य उपार्जन की ओर लगो। यदि स्वर्ग और नरक होता तो मेरे पिता, प्रपितामह वहां गये होंगे, वे अवश्य ही आकर मुझे चेतावनी देते। प्रत्युत्तर में केशी श्रमण ने कहा—एक कामुक है, जिसने तुम्हारी पत्नी के साथ दुराचार किया हो, और तुमने उसे प्राणदण्ड की सजा दी हो, वह अपने पारिवारिक जनों को सूचना देने के लिए जाना चाहे तो क्या तुम उसे मुक्त करोगे? नहीं, वैसे ही नरक से जीव मुक्त नहीं हो पाते, जो आकर तुम्हें सूचना दें और स्वर्ग के जीव इसलिए नहीं आते कि यहां पर गन्दगी है। कल्पना करो अपने शरीर को स्वच्छ बनाकर और सुगन्धित द्रव्यों को लेकर तुम देवालय की ओर जा रहे हो, उस समय शौचालय में बैठा हुआ कोई व्यक्ति तुम्हें वहां बुलाए तो क्या तुम उस गन्दे स्थान में जाना पसन्द करोगे ? नहीं। वैसे ही देव भी यहां आना पसन्द नहीं करते हैं।
राजा प्रदेशी और केशी का यह संवाद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। केशी श्रमण की युक्तियां इतनी गजब की हैं कि आज भी पाठकों के लिए प्रेरणादायी ही नहीं अपितु आत्म-स्वरूप को समझने के लिए सर्चलाइट की तरह उपयोगी है। वास्तविक रूप से देखा जाय तो यही संवाद राजप्रश्नीय की आत्मा है। जिस तरह से राजप्रश्नीय में प्रश्नोत्तर हैं, उसी तरह दीघ-निकाय के 'पायासिसुत्त' में राजा 'पायासि' के प्रश्नोत्तर हैं। जो इन प्रश्नों से मिलते-जुलते हैं। यह भी सम्भव है कि जनमानस में आत्मा और शरीर की अभिन्नता को लेकर जो चिन्तन चल रहा था, उसका प्रतिनिधित्व राजा प्रदेशी ने किया हो और जैन दृष्टि से उसका समाधान केशी श्रमण ने किया हो।
राजा प्रदेशी का जीवन अत्यन्त उग्र रहा है। उसके हाथ रक्त से सने हुए रहते थे पर केशी श्रमण के सान्निध्य ने उसके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। महारानी के द्वारा जहर देने पर भी उसके मन में किंचित् मात्र भी रोष पैदा नहीं हुआ। जिस जीवन में पहले क्रोध की ज्वाला धधक रही थी, वही जीवन क्षमासागर के रूप में परिवर्तित हो गया। इसलिए सत्संग की महिमा और गरिमा का यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है। व्याख्या-साहित्य
राजप्रश्नीय कथाप्रधान आगम होने से इस पर न नियुक्ति लिखी गई, न भाष्य की रचना हुई और न चूर्णि का निर्माण ही हुआ। इस पर सर्वप्रथम आचार्य मलयगिरि ने संस्कृत भाषा में टीकानिर्माण किया। संस्कृत टीकाकारों में आचार्य मलयगिरि का स्थान विशिष्ट है। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में वाचस्पति मिश्र ने षट्दर्शनों पर महत्त्वपूर्ण टीकाएं लिखकर एक भव्य आदर्श उपस्थित किया है, वैसे ही जैन साहित्य पर आचार्य मलयगिरि ने प्रांजल भाषा
और प्रवाहपूर्ण शैली में भावपूर्ण टीकाएं लिखकर एक आदर्श उपस्थित किया। वे दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनमें आगमों के गम्भीर रहस्यों को तर्कपूर्ण शैली से व्यक्त करने की अद्भुत कला और क्षमता थी। आगमप्रभावक मुनि पुण्यविजयजी महाराज के शब्दों में कहा जाय तो 'व्याख्याकारों में उनका स्थान सर्वोत्कृष्ट है।' मलयगिरि अपनी वृत्तियों में सर्वप्रथम मूलसूत्र, गाथा या श्लोक के शब्दार्थ की व्याख्या कर उसके अर्थ का
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