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उनके ठहरने के लिए योग्य व्यवस्था का ध्यान रखना।
कुछ दिनों के पश्चात् केशीश्रमण श्वेताम्बिका नगरी में पधारे। उद्यनपालक ने उनके ठहरने की समुचित व्यवस्था की और चित्त सारथी को उनके आगमन की सूचना दी। चित्त सारथी समाचार पाकर प्रसन्नता से झूम उठा। वह दर्शन के लिए पहुंचा। उसने निवेदन किया मैं किसी बहाने से राजा प्रदेशी को यहां लाऊंगा। आप डटकर उसका पथ-प्रदर्शन करना।
दूसरे दिन चित्त सारथी अभिनव शिक्षित घोड़ों की परीक्षा के बहाने राजा प्रदेशी को उद्यान में ले गया, जहां केशी कुमारश्रमण विराज रहे थे। चित्त सारथी ने राजा को बताया—ये चार ज्ञान के धारक कुमारश्रमण केशी हैं। हम यह पूर्व में ही बता चुके हैं कि राजा प्रदेशी अक्रियावादी था। उसे आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व पर विश्वास नहीं था। वह आत्मा और शरीर को एक ही मानता था। आत्मा : एक अनुचिन्तन
भारतीय दर्शन का विकास और विस्तार आत्मतत्त्व को केन्द्र मानकर ही हुआ है। आत्मवादी दर्शन हों या अनात्मवादी, सभी में आत्मा के विषय में चिन्तन किया है। किन्तु उस चिन्तन में एकरूपता नहीं है। आत्मा विश्व के समस्त पदार्थों से विलक्षण है। प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव तो करता है, किन्तु उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता। यही कारण है कि किसी ने आत्मा को शरीर माना, किसी ने बुद्धि कहा, किसी ने इन्द्रिय और मन को ही आत्मा समझा तो कितनों ने इन सबसे पृथक् आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया। आत्मा के अस्तित्व की संसिद्धि स्वसंवेदन से होती है। इस संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे अपने आपको सुखी-दुःखी, धनवान्-निर्धन अनुभव करते हैं। यह अनुभूति चेतन आत्मा को ही होती है, जड़ को नहीं। आत्मा अमूर्त है। किन्तु अनात्मवादियों की धारणा है कि घट-पट आदि पदार्थ जैसे प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उसी तरह आत्मा प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता और जो प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं है, उसकी सिद्धि अनुमान प्रमाण से भी नहीं हो सकती, क्योंकि अनुमान का हेतु प्रत्यक्षगम्य होना चाहिए, जैसे अग्नि का अविनाभावी हेतु धूम प्रत्यक्षगम्य है। हम भोजनशाला में उसे प्रत्यक्ष देखते हैं, इसलिए दूसरे स्थान पर भी धुएं को देखकर स्मरण के बल पर परोक्ष अग्नि को अनुमान से जान लेते हैं। किन्तु आत्मा का इस प्रकार का कोई अविनाभावी पदार्थ पहले नहीं देखा। इसीलिए आत्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष और अनुमान से सिद्ध नहीं है। प्रत्यक्ष से सिद्ध न होने के कारण चार्वाक दर्शन ने आत्मा को स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना। भूतसमुदाय से विज्ञानघन उत्पन्न होता है और भूतों के नष्ट होने पर वह भी नष्ट हो जाता है। परलोक या पुनर्जन्म नहीं है।
किसी-किसी का यह मन्तव्य था कि शरीर ही आत्मा है। शरीर से भिन्न कोई आत्मा नामक तत्त्व नहीं है। यदि शरीर से भिन्न आत्मा हो तो मृत्यु के पश्चात् स्वजन और परिजनों के स्नेह से पुनः लौटकर क्यों नहीं आता? इसलिए इन्द्रियातीत कोई आत्मा नहीं है, शरीर ही आत्मा है।
___ इसके उत्तर में आत्मवादियों का कथन है कि आत्मा है या नहीं, यह संशय जड़ को नहीं होता। यह चेतन तत्त्व को ही हो सकता है। यह मेरा शरीर है, इसमें जो 'मेरा' शब्द है वह सिद्ध करता है कि 'मैं' शरीर से पृथक् है। जो शरीर से पृथक् है, वह आत्मा है।
जड़ पदार्थ में किसी का विधान या निषेध करने का सामर्थ्य नहीं होता। यदि जड़ शरीर से भिन्न चैतन्यमय आत्मा का अस्तित्व न हो तो आत्मा का निषेध कौन करता है ? स्पष्ट है कि आत्मा का निषेध करने वाला स्वयं आत्मा
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