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के अनुसार रानी पद्मावती ने नागदेव की अर्चा की थी ।१२५ नागकुमार धरणेन्द्र ने भगवान् पार्श्व की जल से छत्र बना कर रक्षा की थी ।१२६ 'मुचिलिंद' नाम के सर्पराज ने तथागत बुद्ध की हवा और पानी से रक्षा की थी।९२७ इस तरह नाग की चर्चा अनेक स्थलों पर है और उसके भय से लोग उसकी उपासना करते थे। आज भी भारत में लोग 'नागपंचमी' का पर्व मनाते हैं, जो एक प्रकार से नागमह का ही रूप है।
'यक्षमह' आठवां उत्सव है। नगरों और गांवों के बाहर यक्षायतन होते थे। लोगों की यह धारणा थी कि यक्ष की पूजा करने से कोई भी संक्रामक रोग हमारे ऊपर आक्रमण नहीं कर सकेगा । यक्ष इन रोगों से हमारी रक्षा करेगा । १२८ अभिधान - राजेन्द्रकोष में पूर्णभद्र, मणिभद्र आदि तेरह यक्षों का उल्लेख हुआ है ।१२९ जो ब्रह्मचारी हैं, उनको यक्ष, देव, दानव और गन्धर्व नमन करते हैं । १३०
महाभारत१३१ में और संयुक्तनिकाय १३२ में मणिभद्र यक्ष का उल्लेख है। मत्स्यपुराण में पूर्णभद्र के पुत्र का नाम हरिकेश यक्ष बताया है।१३३ औपपातिक में चम्पानगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य का उल्लेख है । १३४ आवश्यकनिर्युक्ति के अनुसार भगवान् महावीर जब छद्मस्थ अवस्था में ध्यानमुद्रा में खड़े थे तब 'बिभेलक' यक्ष ने उपद्रव से उनकी रक्षा की थी।१३५ ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार शैलक यक्ष चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन लोगों की सहायता के लिए तत्पर रहता था। उसने चम्पानगरी के जिनपाल और जिनरक्षित की रत्नादेवी से रक्षा की थी ।९३६ सन्तानोत्पति के लिए हरिणैगमैषी देव की उपासना की जाती थी । १३७ वैदिक ग्रन्थों में 'हरिणैगमैषी' हरिण के सिर वाला और इन्द्र का सेनापति था। महाभारत में उसको अजामुख बताया है ।१३८ जैन साहित्य की दृष्टि से 'हरिणैगमैषी' सौधर्म देवलोक का देव था, न कि यक्ष। आगम के व्याख्यासाहित्य में अनेक स्थलों पर यक्ष के उपद्रवों का उल्लेख है। यक्षों से अपने
१२५. ज्ञाताधर्मकथा-८, पृष्ठ ९५
१२६. आचारांगनिर्युक्ति-३३५ टीका, पृष्ठ ३८५
१२७. इण्डियन सर्पेण्ट लोर, लंदन, पृष्ठ ४१ – फोगल जे.
१२८. डिस्ट्रिक्ट गजेटियर आव मुंगेर, पृष्ठ-५५
१२९. अभिधानराजेन्द्र कोष 'जक्ख शब्द '
१३०. देव-दाणव- गंधव्वा, तक्ख- रक्खस - किन्नरा ।
बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेंति तं ॥
१३१. (क) द ज्योग्राफिकल कन्टैक्ट्स ऑव महाभारत, लेखक डा. सिल्वन लेवी
(ख) महाभारत २/१०/१०
१३२. संयुक्तनिकाय – १.१०, पृष्ठ- २०९
१३३. मत्स्यपुराण, अध्याय- १८०
१३४. औपपातिक, चम्पावर्णन, पूर्णभद्र चैत्य — पृष्ठ ४, युवाचार्य मधुकर मुनि
१३५. आवश्यकनिर्युक्ति-४८७
१३६. (क) ज्ञाताधर्मकथा ९, पृष्ठ १२७
(ख) तुलना कीजिए— वलाहस्स जातक (१९६), २, पृष्ठ २९२
१३७. अन्तगडदशा- २, पृष्ठ १५
१३८. द. यक्षाज, वाशिंगटन, १९२८, १९३९. ले. कुमारस्वामी ए. के.
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-उत्तराध्ययन-अध्ययन - १६, गाथा १६