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नीतियों में बहुत ही कुशल था । प्रबल प्रतिभा का धनी होने के कारण समय-समय पर राजा प्रदेशी उससे परामर्श किया करता था ।
कुणाला जनपद में श्रावस्ती नगरी का अधिपति 'जितशत्रु' था । जितशत्रु के सम्बन्ध में हम पूर्व में लिख चुके हैं—वह राजा प्रदेशी का आज्ञाकारी सामन्त था । राजा प्रदेशी के आदेश को स्वीकार कर चित्त सारथी उपहार लेकर श्रावस्ती पहुंचता है और वहां रहकर शासन की देखभाल भी करता है।
केशी श्रमण : एक चर्चा
उस समय चतुर्दशपूर्वधारी पाश्र्वापत्य केशी कुमार श्रमण वहां पधारते हैं । ऐतिहासिक विज्ञों का अभिमत है कि सम्राट् प्रदेशीप्रतिबोधक केशी कुमार श्रमण भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के चतुर्थ पट्टधर थे। प्रथम पट्टधर आचार्य शुभदत्त थे, जो प्रथम गणधर थे। उनकी जन्मस्थली 'क्षेमपुरी' थी। उन्होंने 'सम्भूत' मुनि के पास श्रावकधर्म ग्रहण किया था। माता-पिता के परलोकवासी होने पर उन्हें संसार से विरक्ति हुई । भगवान् पार्श्वनाथ के प्रथम उपदेश को सुनकर दीक्षा ली और पहले गणधर बने । उनके उत्तराधिकारी आचार्य हरिदत्तसूरि हुए, जिन्होंने वेदान्त दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य ‘लोहिय' को शास्त्रार्थ में पराजित कर प्रतिबोध दिया और लोहिय को ५०० शिष्यों के साथ दीक्षित किया। उन नवदीक्षित श्रमणों ने सौराष्ट्र, तैलंग, प्रभृति प्रान्तों में विचरण कर जैन शासन की प्रबल प्रभावना की । तृतीय पट्टधर आचार्य 'समुद्रसूरि' थे। उन्हीं के समय 'विदेशी' नामक महान् प्रभावशाली आचार्य ने उज्जयिनी नगरी के अधिपति महाराज ‘जयसेन', महारानी 'अनंगसुन्दरी' और राजकुमार 'केशी' को दीक्षित किया । १००
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आगमसाहित्य में केशी श्रमण का राजप्रश्नीय और उत्तराध्ययन, इन दो आगमों में उल्लेख हुआ । राजप्रश्नीय और उत्तराध्ययन में उल्लिखित केशी एक ही व्यक्ति रहे हैं या पृथक्-पृथक् ? प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी संघवी, १०१ डा. जगदीशचन्द्र जैन,१०२ डा. मोहनलाल मेहता, १०३ पं. मुनि नथमलजी, ( युवाचार्य महाप्रज्ञ) आदि अनेक विज्ञों ने राजा प्रदेशी के प्रतिबोधक केशी कुमार श्रमण को और गणधर गौतम के साथ संवाद करने वाले केशी कुमार श्रमण को एक माना है, पर हमारी दृष्टि से दोनों पृथक्-पृथक् व्यक्ति हैं। क्योंकि सम्राट् प्रदेशी को प्रतिबोध देने वाले चतुर्दशपूर्वी और चार ज्ञान धारक थे । १०५ गणधर गौतम के साथ चर्चा करने वाले केशीकुमार तीन ज्ञान के धारक थे।९०६ यदि हम यह मान लें कि जिस समय केशीकुमार ने गणधर गौतम के साथ चर्चा की थी, उस समय वे तीन
१०० केशिनामा तद्विनेयः
यः प्रदेशीनरेश्वरम् । प्रबोध्य नास्तिकाद् धर्माद् जैनधर्मेऽध्यरोपयत् ॥
१०१. 'दर्शन और चिन्तन' - भगवान् पार्श्वनाथ का विरासत लेख, पृष्ठ ५
१०२. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-२, पृष्ठ-५४-५५
— डा. मोहनलाल मेहता
१०३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग - २, पृष्ठ-५४-५५ १०४. उत्तरज्झयणाणि भाग-१, पृष्ठ- २०१
१०५. 'पासावच्चिज्जे केसीणामं कुमारसमणे जाइसंपणे..... चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगए पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे ।'
— रायपसेणइय, पृष्ठ- २८३. पं. बेचरदासजी संपादित
१०६. तस्स लोगपईवस्स आसि सीसे महायसे ।
केशी कुमारसमणे विज्जाचरणपारगे ॥ ओहिनाणसुए बुद्धे, सीससंघसमाउले । गामाणुगामं रीयन्ते, सावत्थिं नगरिमागए ॥
- नाभिनन्दोद्धार प्रबन्ध - १३६
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- उत्तराध्ययन- २३ / २-३