________________
२०८
राजप्रश्नीवसूत्र
२८५- तब उस दृढप्रतिज्ञ बालक को बाल्यावस्था से मुक्त यावत् विकालचारी जानकर माता-पिता विपुल अन्नभोगों, पानभोगों, प्रासादभोगों, वस्त्रभोगों और शय्याभोगों के योग्य भोगों को भोगने के लिए आमंत्रित करेंगे। अर्थात् माता-पिता उसे भोगसमर्थ जानकर कहेंगे कि हे चिरंजीव ! तुम युवा हो गये हो अतः अब कामभोगों की इस विपुल सामग्री का भोग करो। दृढप्रतिज्ञ की अनासक्ति
२८६- तए णं दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहिं अन्नभोएहिं जाव सयणभोगेहिं णो सज्जिहिति, णो गिज्झिहिति, णो मुच्छिहिति, णो अझोववजिहिति, से जहा णामए पउमुप्पले ति वा परमे इ वा जाव सयसहस्सपत्तेति वा पंके जाते जले संवुड्ढे णोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव दढपइण्णे वि दारए कामेहिं जाते भोगेहिं संवड्डिए णोवलिप्पिहिति० मित्तणाइणियगसयण संबंधिपरिजणेणं ।
से णं तथारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुझिहिति, केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सति, से णं अणगारे भविस्सइ ईरियासमिए जाव सुहुयहुयासणो इव तेयसा जलंते ।
___ तस्स णं भगवतो अणुत्तरेणं णाणेणं एवं दंसणेणं चरित्तेणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं खन्तीए गुत्तीए मुत्तीए अणुत्तरेणं सव्वसंजमसुचरियतवफलणिव्वाणमग्गेण अप्पाणं भावमाणस्स अणंते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे णिव्वाघाए केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जिहिति ।
तए णं से भगवं अरहा जिणे केवली भविस्सइ सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियायं जाणहिति तं—आगतिं गतिं ठितिं चवणं उववायं तक्कं कडं मणोमाणसियं खइयं भुत्तं पडिसेवियं आवीकम्म रहोकम्मं अरहा अरहस्सभागी तं तं मणवयकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ ।
तए णं दढपइन्ने केवली एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं आभोएत्ता बहूई भत्ताई पच्चक्खाइस्सइ, बहूई भत्ताई अणसणाए छेइस्सइ, जस्सट्ठाए कीरइ णग्गभावे केसलोचबंभचेरवासे अण्हाणगं अदंतवणं अणुवहाणगं भूमिसेज्जाओ फलहसेज्जाओ परघरपवेसो लद्धावलद्धाई माणावमाणाइं परेसिं हीलणाओ निंदणाओ खिंसणाओ तज्जणाओ ताडणाओ गरहणाओ उच्चावया विरूवरूवा बावीसं परीसहोवसग्गा गामकंटगा अहियासिजंति तमढें आराहेइ, चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं सिज्झिहिति मुच्चिहिति परिनिव्वाहिति सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति ।
२८६-तब वह दृढप्रतिज्ञ दारक उन विपुल अन्न रूप भोग्य पदार्थों यावत् शयन रूप भोग्य पदार्थों में आसक्त नहीं होगा, गृद्ध नहीं होगा, मूछित नहीं होगा और अनुरक्त नहीं होगा। जैसे कि नीलकमल, पद्मकमल (सूर्यविकासी कमल) यावत् शतपत्र या सहस्रपत्र कमल कीचड़ में उत्पन्न होते हैं और जल में वृद्धिंगत होते हैं, फिर भी पंकरज