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दृढप्रतिज्ञ की भोगसमर्थता
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मुख्य धर्मपरंपराओं के साहित्य को देखें तो सर्वत्र विस्तार के साथ कलाओं का विवरण उपलब्ध है। वैदिक परंपरा के रामायण, महाभारत, शुक्रनीति, वाक्यपदीय आदि ग्रन्थों में, बौद्ध-परंपरा के ललितविस्तरा में और जैन परंपरा के समवायांगसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ज्ञातासूत्र, औपपातिकसूत्र, कल्पसूत्र और इनकी व्याख्याओं में वर्णन किया गया है। किन्तु संख्या और नामों में अन्तर है। कहीं कलाओं की संख्या चौसठ बताई है तो क्षेमेन्द्र के कलाविलास ग्रन्थ में सौ से अधिक कलाओं का वर्णन किया है। बौद्धसाहित्य में इनकी संख्या छियासी कही है। जैनसाहित्य में पुरुष योग्य बहत्तर और महिलाओं के लिए चौसठ कलाओं का उल्लेख है। लेकिन जैनसाहित्यगत पुरुषयोग्य कलायें बहत्तर मानने की परंपरा सर्वमान्य है। जिसकी पुष्टि जनसाधारण में प्रचलित इस दोहे से हो जाती है
कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार ।
एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार ॥ जीवन धारण करने के लिए मानव को जैसे रोटी, कपड़ा और मकान जरूरी है, उसी प्रकार जीवन की सुरक्षा के लिए शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शुद्धि और आजीविका के साधनों की व्यवस्था, ये तीन भी आवश्यक हैं। अतएव पूर्व सूत्र में उल्लिखित बहत्तर कलाओं के नामों में ध्यान देने योग्य यह है कि उनके चयन में दीर्घदृष्टि से काम लिया गया है। उनमें जीवन की सुरक्षा के तीनों अंगों के साधनों का समावेश करने के साथ लोकव्यवहारों के निर्वाह करने की क्षमता और प्राकृतिक पदार्थों को अपने लिए उपयोगी बनाने और उनका समीचीन उपयोग करने की योग्यता अर्जित करने का लक्ष्य रखा गया है।
कलाओं के शिक्षण की प्राचीन पद्धति पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय शिक्षणपद्धति का स्तर क्या था? मात्र पुस्तकीय ज्ञान करा देना अथवा ग्रंथ रटा देना और वाणी द्वारा व्याख्या कर देना ही पर्याप्त नहीं माना जाता था, किन्तु प्रयोग द्वारा वैसा कार्य भी कराया जाता था। यदि उन कलाओं और शिक्षणपद्धति को सन्मुख रखकर आज की शिक्षा नीति निर्धारित की जाये तो उपयोगी रहेगा।
विद्वत्ता के लिए जैसे आज अनेक देशों की बोलियों और भाषाओं को जानना आवश्यक है, उसी तरह प्राचीन काल में भी कलाओं के अध्ययन के साथ प्रत्येक व्यक्ति और विशेषकर समृद्ध परिवारों में जन्मे व्यक्तियों और देशविदेश में व्यापार के निमित्त जाने वालों के लिए अनेक भाषाओं का ज्ञाता होना अनिवार्य था। जो दृढ़प्रतिज्ञ के उत्पन्न होने के कुलों के लिए दिये विशेषणों से स्पष्ट है।
यद्यपि यहां की तरह अन्य आगम-पाठों में भी अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए' पद आया है। वह वर्ण्य व्यक्ति की विशेषता बताने के लिए प्रयुक्त हुआ है। किन्तु वे अठारह भाषायें कौनसी थीं, इसका उल्लेख मूल पाठों में कहीं भी देखने में नहीं आया है। हां समवायांग, प्रज्ञापना, विशेषावश्यकभाष्य और कल्पसूत्र की टीकाओं में अठारह लिपियों के नाम मिलते हैं। परन्तु इन नामों में भी भिन्नता है। इस स्थिति में यही माना जा सकता है कि उस समय बहुमान्य प्रचलित बोलियों को एक-एक भाषा माना जाता हो और उनको बोलने-समझने में निष्णात होने का बोध कराने के लिए ही 'अठारह भाषाविशारद' पद ग्रहण किया गया हो।
___२८५- तए णं तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जाव वियालचारि च वियाणित्ता विउलेहिं अन्नभोगेहि य पाणभोगेहि य लेणभोगेहि य वत्थभोगेहि य सयणभोगेहि य उवनिमंतिहिंति ।