________________
राजप्रश्नीयसूत्र
खाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारिस्संति सम्माणिस्संति विउलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलइस्संति विउलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलइत्ता पडिविसज्जेर्हिति ।
२०६
२८३— तत्पश्चात् कलाचार्य उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को गणित प्रधान, लेखन (लिपि) से लेकर शकुनिरुत पर्यन्त बहत्तर कलाओं को सूत्र (मूल पाठ) से, अर्थ (व्याख्या) से, ग्रन्थ एवं प्रयोग से सिखला कर, सिद्ध कराकर माता-पिता के पास ले जायेंगे ।
तब उस दृढप्रतिज्ञ बालक के माता-पिता विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से कलाचार्य का सत्कार, सम्मान करेंगे और फिर जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान (भेंट) देंगे। जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान देकर विदा करेंगे।
दृढप्रतिज्ञ की भोगसमर्थता
२८४— तए णं से दढपतिपणे दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते बावत्तरिकलापंडिए णवंगसुत्तपडिबोहए अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए गीयरई गंधव्वणट्टकुसले सिंगारागारचारुवेसे संगयगयहसियभणियचिट्ठियविलासनिउणजुत्तोवयारकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोगसमत्थे साहस्सीए वियालचारी यावि भविस्सइ ।
२८४— इसके बाद वह दृढप्रतिज्ञ बालक बालभाव से मुक्त हो परिपक्व विज्ञानयुक्त, युवावस्थासंपन्न हो जायेगा। बहत्तर कलाओं में पंडित होगा, बाल्यावस्था के कारण मनुष्य के जो नौ अंग—दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, जिह्वा, त्वचा और मन सुप्त-से अर्थात् अव्यक्त चेतना वाले रहते हैं, वे जागृत हो जायेंगे । अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में कुशल हो जायेगा, वह गीत का अनुरागी, गीत और नृत्य में कुशल हो जायेगा। अपने सुन्दर वेष से श्रृंगार का आगार-जैसा प्रतीत होगा। उसकी चाल, हास्य, भाषण, शारीरिक और नेत्रों की चेष्टायें आदि सभी संगत होंगी। पारस्परिक आलाप-संलाप एवं व्यवहार में निपुण - कुशल होगा। अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहुयुद्ध करने एवं अपनी भुजाओं से विपक्षी का मर्दन करने में सक्षम एवं भोग भोगने की सामर्थ्य से संपन्न हो जायेगा तथा साहसी ऐसा हो जायेगा कि विकालचारी (मध्यरात्रि में इधर-उधर जाने-आने में भी) भयभीत नहीं होगा।
विवेचन — प्रस्तुत सूत्रगत 'बावत्तरिकलापंडिए' और 'अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए' इन दो पदों का विचार करते हैं।
"
कला का अर्थ है—कार्य को भलीभांति करने का कौशल । व्यक्ति के उन संस्कारों को सबल बनाना जो स्वयं उसके एवं सामाजिक जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक हैं। यदि व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण न हो, चारित्र का विकास न हो और संस्कृति की सुरक्षा के लिए सामाजिक तथा धार्मिक कर्त्तव्यों एवं दायित्वों का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं किया जाये तो मानव का कुछ भी महत्त्व नहीं है। मानव और दानव, पशु में कुछ भी अन्तर नहीं रहेगा। यही कारण है कि प्रत्येक युग में मानव को सुसंस्कारी बनाने, शारीरिक, मानसिक दृष्टि से विकसित करने और आजीविका के प्रामाणिक साधनों की योग्यता अर्जित करने के लिए कलाओं के शिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है।
यद्यपि कलाओं के विषय में प्रत्येक देश के साहित्य में विचार किया गया है, तथापि हम अपने देश को ही