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उपसंहार
और जलरज से लिप्त नहीं होते हैं, इसी प्रकार वह दृढप्रतिज्ञ दारक भी कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों के बीच लालनपालन किये जाने पर भी उन कामभोगों में एवं मित्रों, ज्ञातिजनों, निजी - स्वजन - सम्बन्धियों और परिजनों में अनुरक्त नहीं होगा ।
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किन्तु वह तथारूप स्थविरों से केवलबोधि — सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक्त्व का लाभ प्राप्त करेगा एवं मुंडित होकर, गृहत्याग कर अनगार - प्रव्रज्या अंगीकार करेगा। अनगार होकर ईर्यासमिति आदि अनगार धर्म का पालन करते हुए सुहुत अच्छी तरह से होम की गई ) हुताशन (अग्नि) की तरह अपने तपस्तेज से चमकेगा, दीप्तमान होगा।
इसके साथ ही अनुत्तर (सर्वोत्तम) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अप्रतिबद्ध विहार, आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति (निर्लोभता) सर्व संयम एवं निर्वाण की प्राप्ति जिसका फल है ऐसे तपोमार्ग से आत्मा को भावित करते हुए भगवान् (दृढप्रतिज्ञ) को अनन्त, अनुत्तर, सकल, परिपूर्ण, निरावरण, निर्व्याघात, अप्रतिहत, सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होगा ।
तब वे दृढप्रतिज्ञ भगवान् अर्हत, जिन, केवली हो जायेंगे। जिसमें देव, मनुष्य तथा असुर आदि रहते हैं ऐसे लोक की समस्त पर्यायों को वे जानेंगे। अर्थात् वे प्राणिमात्र की आगति — एक गति से दूसरी गति में आगमन को, गति - वर्तमान गति को छोड़कर अन्यगति में गमन को, स्थिति, च्यवन, उपपात (देव या नारक जीवों की उत्पत्ति—जन्म्), तर्क (विचार), क्रिया, मनोभावों, क्षयप्राप्त (भोगे जा चुके), प्रतिसेवित ( भोग- परिभोग की वस्तुओं), आविष्कर्म (प्रकट कार्यों), रह: कर्म (एकान्त में किये गुप्त कार्यों ) आदि, प्रकट और गुप्त रूप से होने वाले उस उस मन, वचन और कायभोग में विद्यमान लोकवर्ती सभी जीवों के सर्वभावों को जानते-देखते हुए विचरण करेंगे।
तत्पश्चात् वे दृढप्रतिज्ञ केवली इस प्रकार के विहार से विचरण करते हुए अनेक वर्षों तक केवलिपर्याय का पालन कर, आयु के अंत को जानकर अपने अनेक भक्तों- भोजनों का प्रत्याख्यान व त्याग करेंगे और अनशन द्वारा बहुत से भोजनों का छेदन करेंगे और जिस साध्य की सिद्धि के लिए नग्नभाव, केशलोच, ब्रह्मचर्यधारण, स्नान का त्याग, दंतधावन का त्याग, पादुकाओं का त्याग, भूमि पर शयन करना, काष्ठासन पर सोना, भिक्षार्थ पर गृहप्रवेश, लाभ - अलाभ में सम रहना, मान-अपमान सहना, दूसरों के द्वारा की जानेवाली हीलना (तिरस्कार), निन्दा, खिंसना (अवर्णवाद), तर्जना (धमकी), ताड़ना, गर्हा (घृणा) एवं अनुकूल-प्रतिकूल अनेक प्रकार के बाईस परीषह, उपसर्ग तथा लोकापवाद (गाली-गलौच) सहन किये जाते हैं, उस साध्य मोक्ष की साधना करके चरम श्वासोच्छ्वास में सिद्ध हो जायेंगे, मुक्त हो जायेंगे, सकल कर्ममल का क्षय और समस्त दुःखों का अंत करेंगे।
उपसंहार
२८७ सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ।
२८७— इस प्रकार से सूर्याभदेव के अतीत, अनागत और वर्तमान जीवन-प्रसंगों को सुनने के पश्चात् गौतम स्वामी ने कहा—
भगवन् ! वह ऐसा ही है जैसा आपने प्रतिपादन किया है, हे भगवन् ! वह इसी प्रकार है, जैसा आप फरमाते हैं, इस प्रकार कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया । वंदन - नमस्कार करके संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।