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राजप्रश्नीयसूत्र (लकुस देश की), द्रावड़ी (द्रविड़ देश की), सिंहली (सिंहल देश, लंका की), पुलिंदी (पुलिंद देश की), आरबी (अरब देश की), पक्कणी (पक्कण देश की), बहली (बहल देश की), मुरण्डी (मुरण्ड देश की), शबरी (शबर देश की), पारसी (पारस देश की) आदि अनेक देश-विदेशों की तरुण दासियों एवं वर्षधरों (प्रयोग द्वारा नपुंसक बनाये हुए पुरुषों), कंचुकियों और महत्तरकों (अन्तपुर के कार्य की चिन्ता रखने वालों) के समुदाय से परिवेष्टित होता हुआ, हाथों ही हाथों में लिया जाता, दुलराया जाता, एक गोद से दूसरी गोद में लिया जाता, गा-गाकर बहलाया जाता, क्रीड़ा आदि द्वारा लालन-पालन किया जाता, लाड़ किया जाता, लोरियां सुनाया जाता, चुम्बन किया जाता और रमणीय मणिजटित प्रांगण में चलाया जाता हुआ व्याघातरहित गिरि-गुफा में स्थित श्रेष्ठ चम्पक वृक्ष के समान सुखपूर्वक दिनोंदिन परिवर्धित होगा—बढ़ेगा। दृढ़प्रतिज्ञ का कलाशिक्षण
२८२– तए णं तं दढपतिण्णं दारगं अम्मापियरो सातिरेगअट्ठवासजायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहुत्तंसि पहायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता महया इड्डीसक्कारसमुदएणं कलायरियस्स उवणेहिति ।
तए णं से कलायरिए तं दढपतिण्णं दारगं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ सुत्तओ अत्थओ य गंथओ य करणओ य सेहावेहि य पसिक्खावेहि य ।
तं जहा—लेहं गणियं रूवं नटुं गीयं वाइयं सरगयं पुक्खरगयं समतालं जूयं जणवयं पासगं अद्वावयं पारेकव्वं दगमट्टियं अन्नविहिं पाणविहिं वत्थविहिं विलेवणविहिं सयणविहिं अज्जं पहेलियं मागहियं णिहाइयं गाहं गीइयं सिलोगं हिरण्णजुत्तिं सुवण्णजुत्तिं आभरणविहिं तरुणीपडिकम्मं इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं कुक्कुडलक्खणं छत्तलक्खणं चक्कलक्खणं दंडलक्खणं असिलक्खणं मणिलक्खणं कागणिलक्खणं वत्थुविजं णगरमाणं खंधवारं माणवारं पडिचारं वूहं चक्कवूहं गरुलवूहं सगडवहं जुद्धं नियुद्धं जुद्धजुद्धं अट्ठिजुद्धं मुट्ठिजुद्धं बाहुजुद्धं लयाजुद्धं ईसत्थं छरुप्पवायं धणुवेयं हिरण्णपागं सुवण्णपागं मणिपागं धाउपागं सुत्तखेड्९ वट्टखेड्डे णालियाखेडं पत्तच्छेज्जं कडगच्छेज्जं सज्जीवनिज्जीवं सउणरुयं-इति ।
२८२– तत्पश्चात् दृढप्रतिज्ञ बालक को कुछ अधिक आठ वर्ष का होने पर कलाशिक्षण के लिए माता-पिता शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में स्नान, बलिकर्म, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त कराके और अलंकारों से विभूषित कर ऋद्धि-वैभव, सत्कार, समारोहपूर्वक, कलाचार्य के पास ले जायेंगे।
तब कलाचार्य उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को गणित जिनमें प्रधान है ऐसी लेख (लिपि) आदि शकुनिरुत (पक्षियों के शब्द बोली) तक की बहत्तर कलाओं को सूत्र से, अर्थ से (विस्तार से व्याख्या करके), ग्रन्थ से तथा प्रयोग से सिद्ध करायेंगे, अभ्यास करायेंगे। वे कलायें इस प्रकार हैं
१. लेखन, २. गणित, ३. रूप सजाने की कला, ४. नाट्य (अभिनय) अथवा नृत्य करने की कला, ५. संगीत, ६. वाद्य बजाना, ७. स्वर जानना, ८. वाद्य सुधारना अथवा ढोल आदि बजाने की कला, ९. संगीत में गीत और वाद्यों