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राजप्रश्नीयसूत्र शरीर को निष्पत्ति—प्राप्ति होती है, उसी के अनुसार आत्मप्रदेशों को संकुचित और विस्तृत करने के स्वभाव के कारण वह उस शरीर को अपने असंख्यात आत्मप्रदेशों द्वारा सचित्त अर्थात् आत्मप्रदेशों से व्याप्त करता है। अतएव प्रदेशी! तुम यह श्रद्धा करो—इस बात पर विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं और शरीर जीव नहीं है।
विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में दीपक को ढंकने पर उन-उन के भीतरी भाग को प्रकाशित करने के लिए जिन पात्रों (बर्तनों) के नामों का उल्लेख किया है, वे सभी प्राचीनकाल में मगध देश में प्रचलित-गेहूं, चावल आदि धान्य तथा घी, तेल आदि तरल पदार्थ मापने के साधम माप हैं। गंडमाणिका से लेकर अर्धकुलव पर्यन्त के मापों से धान्य और चतुर्भागिका आदि चतुष्षष्टिका पर्यन्त के पात्रों से तरल पदार्थों को मापा जाता था।
वैदिक दर्शनों में आत्मा के आकार और परिमाण के विषय में अणुमात्र से लेकर सर्वदेशव्याप्त तक मानने की कल्पनायें हैं। वे प्रमाणसिद्ध नहीं हैं और न वैसा अनुभव ही होता है। इसीलिए उन सब कल्पनाओं का निराकरण और आत्मा के सही परिमाण का निर्देश सूत्र में किया गया है कि न तो आत्मा अणु-प्रमाण है और न सर्वलोक व्यापी आदि है। किन्तु कर्मोपार्जित शरीर के आकार के अनुरूप होकर जीव के असंख्यात प्रदेश उस समस्त शरीर में व्याप्त रहते हैं। प्रदेशी की परंपरागत मान्यता का निराकरण
२६६– तए णं पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी एवं खलु भंते ! मम अज्जगस्स एस सण्णा जाव समोसरणे जहा तज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं ! तयाणंतरं च णं ममं पिउणो वि एस सण्णा, तयाणंतरं मम वि एसा सण्णा जाव समोसरणं, तं नो खलु अहं बहुपुरिसपरंपरागयं कुलनिस्सियं दिढेि छंडेस्सामि ।
२६६– तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा-भदन्त! आपने बताया सो ठीक, किन्तु मेरे पितामह की यही ज्ञानरूप संज्ञा बुद्धि थी यावत् समवसरण-सिद्धान्त था कि जो जीव है वही शरीर है, जो शरीर है वही जीव है। जीव शरीर से भिन्न नहीं और शरीर जीव से भिन्न नहीं है। तत्पश्चात् (पितामह के काल-कवलित हो जाने के बाद) मेरे पिता की भी ऐसी ही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण था और उनके बाद मेरी भी यही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण है। तो फिर अनेक पुरुषों (पीढ़ियों) एवं कुलपरंपरा से चली आ रही अपनी दृष्टि मान्यता को कैसे छोड़ दूं?
विवेचन-लोक परंपराएं, मान्यताएं कैसे प्रचलित होती हैं, इसका सूत्र में संकेत है। हम मानवों में जो भी अनुपयोगी और मिथ्या रूढिया चालू हैं उनका आधार पूर्वजों का नाम, लोक दिखावा और अहंकार का पोषण है। हम उनके साथ ऐसे जुड़े हैं कि छोड़ने में प्रतिष्ठाहानि और भय अनुभव करते हैं। इस कारण दिनोंदिन हिंसा, झूठ, छल-फरेब, चोरी-जारी बढ़ रही है और नैतिक पतन होने से मानवीय गुणों का कुछ भी मूल्य नहीं रहा है।
२६७– तए णं केसी कुमारसमणे पएसिरायं एवं वयासी मा णं तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भवेज्जासि, जहा व से पुरिसे अयहारए ।
के णं भंते ! से अयहारए ?