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तज्जीव-तच्छरीवाद मंडन-खंडन
१८९ पिंडएणं गंडमाणियाए, आढतेणं, अद्धाढतेणं, पत्थएणं, अद्धपत्थएणं, कुलवेणं, अद्धकुलवेणं, चाउन्भाइयाए, अट्ठभाइयाए, सोलसियाए, बत्तीसियाए, चउसट्ठियाए, दीवचंपएणं तए णं से पदीवे दीवचंपगस्स अंतो ओभासति, नो चेव णं दीवचंपगस्स बाहिं, नो चेव णं चउसट्ठियाए बाहिं, णो चेव णं कूडागारसालं, णो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं ।
एवामेव पएसी ! जीवे वि जं जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्धं बोंदि णिव्वत्तेइ तं असंखेन्जेहिं जीवपदेसेहि सचित्तं करेइ खुड्डियं वा महालियं वा, तं सद्दहाहि णं तुम पएसी ! जहाअण्णो जीवो तं चेव णं । ___२६५– तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा—भंते! क्या हाथी और कुंथु का जीव एकजैसा है ?
केशी कुमारश्रमण —हां, प्रदेशी! हाथी और कुंथु का जीव एक-जैसा है, समान प्रदेश-परिमाण वाला है, न्यूनाधिक प्रदेश-परिमाण वाला नहीं है।
प्रदेशी–हे भदन्त ! हाथी से कुंथु अल्पकर्म (आयुष्यकर्म), अल्पक्रिया, अल्प प्राणातिपात आदि आश्रव वाला है, और इसी प्रकार कुंथु का आहार, निहार, श्वासोच्छ्वास, ऋद्धि-शारीरिकबल, द्युति आदि भी अल्प है और कुंथु से हाथी अधिक कर्मवाला, अधिक क्रियावाला यावत् अधिक द्युति संपन्न है ?
केशी कुमारश्रमण—हां प्रदेशी! ऐसा ही है—हाथी से कुंथु अल्प कर्मवाला और कुंथु से हाथी महाकर्मवाला
है
___ प्रदेशी तो फिर भदन्त! हाथी और कुंथु का जीव समान परिमाण वाला कैसे हो सकता है ?
केशी कुमार श्रमण—हाथी और कुंथु के जीव को समान परिमाण वाला ऐसे समझा जा सकता है—हे प्रदेशी! जैसे कोई कूटाकार (पर्वतशिखर के आकार-जैसी) यावत् विशाल एक शाला (घर) हो और कोई एक पुरुष उस कटाकारशाला में अग्नि और दीपक के साथ घुसकर उसके ठीक मध्यभाग में खड़ा हो जाए। तत्पश्चात् उस कूटाकारशाला के सभी द्वारों के किवाड़ों को इस प्रकार सटाकर अच्छी तरह से बंद कर दे कि उनमें किंचिन्मात्र भी सांध—छिद्र न रहे। फिर उस कूटाकारशाला के बीचोंबीच उस प्रदीप को जलाये तो जलाने पर वह दीपक उस कूटाकारशाला के अन्तर्वर्ती भाग को ही प्रकाशित, उद्योतित, तापित और प्रभासित करता है, किन्तु बाहरी भाग को प्रकाशित नहीं करता है।
अब यदि वही पुरुष उस दीपक को एक विशाल पिटारे से ढंक दे तो वह दीपक कूटाकारशाला की तरह उस पिटारे के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करेगा किन्तु पिटारे के बाहरी भाग को प्रकाशित नहीं करेगा। इसी तरह गोकिलिंज (गाय को घास रखने का पात्र डलिया), पच्छिकापिटक (पिटारी), गंडमाणिका (अनाज को मापने का बर्तन), आढ़क (चार सेर धान्य मापने का पात्र), अर्धाढक, प्रस्थक, अर्धप्रस्थक, कुलव, अर्धकुलव, चतुर्भागिका, अष्टभागिका, षोडशिका, द्वात्रिंशतिका, चतुष्पष्टिका अथवा दीपचम्पक (दीपक का ढकना) से ढंके तो वह दीपक उस ढक्कन के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करेगा, ढक्कन के बाहरी भाग को नहीं और न चतुष्षष्टिका के बाहरी भाग को, न कूटाकारशाला को, न कूटाकारशाला के बाहरी भाग को प्रकाशित करेगा।
इसी प्रकार हे प्रदेशी ! पूर्वभवोपार्जित कर्म के निमित्त से जीव को क्षुद्र—छोटे अथवा महत्—बड़े जैसे भी