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अनेक वाद्यों का उल्लेख है। बृहत्कल्पभाष्य" में भंभा, मुकुन्द, मद्दल, कडम्ब, झल्लरी, हुडुक्क, कांस्यताल, काहल, तलिमा, वंश, पणव, शंख इन बारह वाद्यों का उल्लेख है। रामायण व महाभारत" में मड्डूक, पटह, वंश, विपञ्ची, मृदंग, पणव, डिंडिम, आडंबर और कलशी का उल्लेख है ।
भरत के नाट्यशास्त्र में, ततवाद्यों में, विपञ्ची और चित्रा को मुख्य और कच्छपी एवं घोषका को उनका अंगभूत माना है ।" चित्रवीणा सात तंत्रियों वाली होती थी और वे तंत्रियां अंगुलियों से बजाई जाती थीं । विपञ्ची में नौ तंत्रियां होती थीं, जिसका वादन 'कोण' अर्थात् वीणावादन के दण्ड के द्वारा किया जाता था । यद्यपि भरत ने कच्छपी और घोषका के स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ भी प्रकाश नहीं डाला है, किन्तु संगीतरत्नाकर ग्रन्थ के अनुसार घोषका एकतंत्री वाली वीणा थी और कच्छपी सम्भव है, सात तंत्रियों से कम वाली वीणा हो । 'संगीतदामोदर' में तत के २९ प्रकार बताये हैं— अलावणी, ब्रह्मवीणा, किन्नरी, लघुकिन्नरी, विपञ्ची, वल्लकी, ज्येष्ठा, चित्रा, घोषवली, जपा, हस्तिका, कुनजिका, कूर्मी, सारंगी, पटिवादिनी, त्रिशवी, शतचन्द्री, नकुलौष्ठी, ढंसवी, ऊदंबरी, पिनाकी, निःशंक, शुष्फल, गदावारणहस्त, रुद्र, स्वरमणमल, कपिलास, मधुस्यंदी और घोपा । ११ आयारचूला और निशीथ में तत के अन्तर्गत वीणा, विपञ्ची, वद्धिसग, तुणय, पवण, तुम्बविणिया, ढंकुण और जोडय ये आठ वाद्य लिये हैं ।
वितत—चर्म से आबद्ध वाद्य वितत है। गीत और वाद्य के साथ ताल एवं लय के प्रदर्शन करने हेतु इन वाद्यों का प्रयोग होता था । इनमें मृदंग, पणव (तन्त्रीयुक्त अवनद्य वाद्य), दुर्दर (कलश के आकार वाला चर्म से मढ़ा हुआ वाद्य), भेरी, डिंडिम, मृदंग आदि हैं। ये वाद्य मानव की कोमल भावनाओं को उद्दीपित करते हैं और वीरोचित उत्साह बढ़ाते हैं। इसलिए धार्मिक उत्सव और युद्ध के प्रसंगों पर इनका उपयोग होता था ।
विज्ञों का यह भी मानना है कि मुरज, पटह, ढक्का, विश्वक, दर्पवाद्य, घण, पणव, सरुहा, लाव, जाहव, त्रिवली, करट, कमठ, भेरी, कुडुक्का, हुडुक्का, झनसमुरली, झल्ली, ढुक्कली, दौंडी, शान, डमरू, ढमुकी, मड्डू, कुंडली, स्तुंग, दुंदुभी, अंग, मर्छल, अणीकस्थ आदि वाद्य भी वितत के अन्तर्गत आते हैं । ६४ .
घन—–— कांस्य आदि धातुओं से बने हुए वाद्य 'घन' कहलाते हैं। करताल, कांस्यवन, नयभटा, शक्तिका, कण्ठिका, पटवाद्य, पट्टाघोष, घर्घर, झंझताल, मंजिर, कर्त्तरी, उष्णकूक आदि घन के अनेक प्रकार हैं । निशीथ
५५. बृहत्कल्पभाष्यपीठिका—२४ वृत्ति ५६. रामायण – ५.१०.३८ आदि
५७.
५८.
महाभारत ७.८२.४
विपंची चैव चित्रा च दारवीष्वंगसंज्ञिते । कच्छपीघोषकादीनि प्रत्यंगानि तथैव च ॥ सप्ततन्त्री भवेत् चित्रा विबंपंची नवतन्त्रिका | विपंची कोणवाद्या स्याच्चित्रा चांगुलिवादना ॥ घोषकश्चैकतन्त्रिका |
६०.
६१. प्राचीन भारत के वाद्ययन्त्र कल्याण (हिन्दूसंस्कृति अङ्क) पृष्ठ ७२१-७२२ से उद्धृत
६२.
६३.
६४.
५९.
आयारचूला - ११ / २
निसीहज्झयणं—१७ / १३८
प्राचीन भारत के वाद्ययन्त्र कल्याण (हिन्दुसंस्कृति अंक), पृष्ठ ७२१-७२२
[२२]
- भरतनाट्य- ३३ / १५
- भरतनाट्य- २९ / ११४ —संगीतरत्नाकर, वाद्याध्याय, पृष्ठ २४८