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तज्जीव-तच्छरीवाद मंडन-खंडन
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बना लूं। ऐसा विचार कर वह जहां अंगीठी रखी थी, वहां आया। आकर अंगीठी में आग को बुझा हुआ देखा। तब वह पुरुष वहां पहुंचा जहां वह काष्ठ पड़ा हुआ था। वहां पहुंचकर चारों ओर से उसने काष्ठ को अच्छी तरह देखा, किन्तु कहीं भी उसे आग दिखाई नहीं दी। तब उस पुरुष ने कमर कसी और कुल्हाड़ी लेकर उस काष्ठ के दो टुकड़े कर दिये। फिर उन टुकड़ों को भी सभी ओर से अच्छी तरह देखा, किन्तु कहीं आग दिखाई नहीं दी। इसी प्रकार फिर तीन, चार, पांच यावत् संख्यात टुकड़े किये परन्तु देखने पर भी उनमें कहीं आग दिखाई नहीं दी।
इसके बाद जब उस पुरुष को काष्ठ के दो से लेकर संख्यात टुकड़े करने पर भी कहीं आग दिखाई नहीं दी तो वह श्रान्त, क्लान्त, खिन्न और दुःखित हो, कुल्हाड़ी को एक ओर रख और कमर को खोलकर मन-ही-मन इस प्रकार बोला—अरे! मैं उन लोगों के लिए भोजन नहीं बना सका। अब क्या करूं। इस विचार से अत्यन्त निराश, दुःखी, चिन्तित, शोकातुर हो हथेली पर मुंह को टिकाकर आर्तध्यानपूर्वक नीचे जमीन में आंखें गड़ाकर चिंता में डूब गया।
लकड़ियों को काटने के पश्चात् वे लोग वहां आये जहां अपना साथी था और उसको निराश दुःखी यावत् चिन्ताग्रस्त देखकर उससे पूछा—देवानुप्रिय! तुम क्यों निराश, दुःखी यावत् चिन्ता में डूबे हुए हो?
तब उस पुरुष ने बताया कि देवानुप्रियो ! आप लोगों ने लकड़ी काटने के लिए वन में प्रविष्ट होने से पहले मुझसे कहा था—देवानुप्रिय! हम लोग लकड़ी लाने जंगल में जाते हैं, इत्यादि यावत् जंगल में चले गये। कुछ समय बाद मैंने विचार किया कि आप लोगों के लिए भोजन बना लूं। ऐसा विचार कर जहां अंगीठी थी, वहां पहुंचा यावत् (वहां जाकर मैंने देखा कि अंगीठी में आग बुझी हुई है। फिर मैं काष्ठ के पास आया। मैंने अच्छी तरह सभी ओर से उस काष्ठ को देखा किन्तु कहीं भी मुझे आग दिखाई नहीं दी। तब मैंने कुल्हाड़ी लेकर उस काष्ठ के दो टुकड़े किये
और उन्हें भी इधर-उधर से अच्छी तरह देखा। परन्तु वहां भी मुझे आग दिखाई नहीं दी। इसके बाद मैंने उसके तीन, चार यावत् संख्यात टुकड़े किये। उनको भी अच्छी तरह देखा, परन्तु उनमें भी कहीं आग दिखलाई नहीं दी। तब श्रान्त, क्लान्त, खिन्न और दुःखित होकर कुल्हाड़ी को एक ओर रखकर विचार किया कि मैं आप लोगों के लिए भोजन नहीं बना सका। इस विचार से मैं अत्यन्त निराश, दु:खी हो शोक और चिन्ता रूपी समुद्र में डूबकर हथेली पर मुंह को टिकाये) आर्तध्यान कर रहा हूं।
उन मनुष्यों में कोई एक छेक–अवसर को जानने वाला, दक्ष—चतुर, प्राप्तार्थ कुशलता से अपने अभीप्सित अर्थ को प्राप्त करने वाला यावत् (बुद्धिमान्, कुशल, विनीत, विशिष्टज्ञानसंपन्न), उपदेशलब्ध—गुरु से उपदेश प्राप्त पुरुष था। उस पुरुष ने अपने दूसरे साथी लोगों से इस प्रकार कहा—हे देवानुप्रियो! आप जाओ और स्नान, बलिकर्म आदि करके शीघ्र आ जाओ। तब तक मैं आप लोगों के लिए भोजन तैयार करता हूं। ऐसा कहकर उसने अपनी कमर कसी और कुल्हाड़ी लेकर सर बनाया, सर से अरणि-काष्ठ को रगड़कर आग की चिनगारी प्रगट की। फिर उसे धौंक कर सुलगाया और फिर उन लोगों के लिए भोजन बनाया।
___ इतने में स्नान आदि करने गये पुरुष वापस स्नान करके, बलिकर्म करके यावत् प्रायश्चित्त करके उस भोजन बनाने वाले पुरुष के पास आ गये। ___तत्पश्चात् उस पुरुष ने सुखपूर्वक अपने-अपने आसनों पर बैठे उन लोगों के सामने उस विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप चार प्रकार का भोजन रखा–परोसा। वे उस विपुल अशन आदि रूप चारों प्रकार के भोजन का स्वाद लेते हुए, खाते हुए यावत् विचरने लगे। भोजन के बाद आचमन-कुल्ला आदि करके स्वच्छ, शुद्ध होकर अपने