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________________ १८२ राजप्रश्नीयसूत्र करेइ, सव्वतो समंता समभिलोएइ, नो चेव णं तस्थ जोइं पासइ । तए णं से पुरिसे तंसि कटुंसि दुहाफालिए वा जाव संखेन्जफालिए वा जोइं अपासमाणे संते तंते परिसंते निविण्णे समाणे परसुं एगंते एडेइ, परियरं मुयइ एवं वयासी—अहो ! मए तेसिं पुरिसाणं असणे नो साहिए त्ति कटु ओहयमणसंकप्पे चिंत्तासोगसागरसंपविढे करयलपल्हत्थमुहे अट्ट झाणोवगए भूमिगयदिट्ठिए झियाइ । तए णं ते पुरिसा कट्ठाई छिंदंति, जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छंति । तं पुरिसं ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासंति एवं वयासी—किं णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहयमणसंकप्पे जाव झियायसि ? तए णं से पुरिसे एवं वयासी तुझे णं देवाणुप्पिया । कद्वाणं अडविं अणपविसमाणा ममं एवं वयासी—अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कट्ठाणं अडविं जाव पविट्ठा, तए णं अहं तत्तो मुहत्तंतरस्स तुझं असणं साहेमि त्ति कटु जेणेव जोइभायणे जाव झियामि । । तए णं तेसिं पुरिसाणं एगे पुरिसे छेए, दक्खे, पत्तढे जाव उवएसलद्धे, ते पुरिसे एवं वयासी गच्छह णं तुझे देवाणुप्पिया ! हाया कयबलिकम्मा जाव हव्वमागच्छेह, जा णं अहं असणं साहेमि त्ति कटु परियरं बंधइ, परसुं गिण्हइ सरं करेइं सरेण अरणिं महेइ जोइं पाडेइ, जोइं संधुक्खेइ, तेसिं पुरिसाणं असणं साहेइ ।। तए णं ते पुरिसा पहाया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छंति, तए णं से पुरिसे तेसिं पुरिसाणं सुहासणवरगयाणं तं विउलं-असणं-पाणं-खाइमंसाइमं उवणेइ । तए णं ते पुरिसा तं विउलं असणं ४ (पाणं-खाइमं-साइमं) आसाएमाणा वीसाएमाणा जाव विहरति । जिमियभुत्तुतरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं पुरिसं एवं वयासी–अहो ! णं तुमं देवाणुप्पिया ! जड्डे-मूढे-अपंडिए-णिव्विण्णाणेअणुवएसलद्धे, जे णं तुम इच्छसि कटुंसि दुहाफालियंसि वा जोतिं पासित्तए । से एएणटेणं पएसी ! एवं वुच्चइ मुढतराए णं तुमं पएसी ! ताओ तुच्छतराओ । ___२५९-- प्रदेशी राजा के इस कथन को सुनने के अनन्तर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा हे प्रदेशी! तुम तो मुझे उस दीन-हीन कठियारे (लकड़ी ढोने वाले) से भी अधिक मूढ—विवेकहीन प्रतीत होते हो। प्रदेशी–हे भदन्त ! कौनसा दीन-हीन कठियारा? केशी कुमारश्रमण हे प्रदेशी ! वन में रहने वाले और वन से आजीविका कमाने वाले कुछ एक पुरुष वनोत्पन्न वस्तुओं की खोज में आग और अंगीठी लेकर लकड़ियों के वन में प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होने के पश्चात् उन पुरुषों ने दुर्गम वन के किसी प्रदेश में पहुंचने पर अपने एक साथी से कहा—देवानुप्रिय! हम इस लकड़ियों के जंगल में जाते हैं। तुम यहां अंगीठी से आग लेकर हमारे लिए भोजन तैयार करना। यदि अंगीठी में आग बुझ जाये तो तुम इस लकड़ी से आग पैदा करके हमारे लिए भोजन बना लेना। इस प्रकार कहकर वे सब उस काष्ठ-वन में प्रविष्ट हो गए। उनके चले जाने पर कुछ समय पश्चात् उस पुरुष ने विचार किया—चलो उन लोगों के लिए जल्दी से भोजन
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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