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________________ १८० राजप्रश्नीयसूत्र हे भदन्त ! किसी एक दिन मैं गणनायक आदि के साथ बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था। उसी समय मेरे नगररक्षक चोर को पकड़ कर लाये। तब मैंने उस पुरुष को जीवित अवस्था में तोला। तोलकर फिर अंगभंग किये बिना ही उसको जीवन रहित कर दिया—मार डाला और मार कर फिर मैंने उसे तोला। उस पुरुष का जीवित रहते जो तोल था उतना ही मरने के बाद था। जीवित रहने और मरने के बाद के तोल में मुझे किसी भी प्रकार का अंतर न्यूनाधिकता दिखाई नहीं दी, न उसका भार बढ़ा और न कम हुआ, न वह वजनदार हुआ और न हल्का हुआ। इसलिए हे भदन्त ! यदि उस पुरुष के जीवितावस्था के वजन से मृतावस्था के वजन में किसी प्रकार की न्यूनाधिकता हो जाती. यावत हलकापन आ जाता तो मैं इस बात पर श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है. जीव और शरीर एक नहीं है। लेकिन भदन्त ! मैंने उस पुरुष की जीवित और मृत अवस्था में किये गये तोल में किसी प्रकार की भिन्नता, न्यूनाधिकता यावत् लघुता नहीं देखी। इस कारण मेरा यह मानना समीचीन है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। २५७– तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी अत्थि णं पएसी ! तुमे कयाइ वत्थी धंतपुव्वे वा धमावियपुवे वा ? हंता अस्थि । अत्थि णं पएसी तस्स वत्थिस्स पुण्णस्स वा तुलियस्स अपुण्णस्स वा तुलियस्स केइ अण्णत्ते वा जाव लहुयत्ते वा ? णो तिणढे समढे । एवामेव पएसी ! जीवस्स अगुरुलघुयत्तं पडुच्च जीवंतस्स बा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स नत्थि केइ आणत्ते वा जाव लहुयत्ते वा, तं सद्दाहि णं तुमं पएसी ! तं चेव ।। २५७– इसके बाद केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा हे प्रदेशी ! तुमने कभी धौंकनी में हवा भरी है अथवा किसी से भरवाई है ? प्रदेशी—हां भदन्त ! भरी है और भरवाई है। केशी कुमार श्रमण हे प्रदेशी ! जब वायु से भर कर उस धौंकनी को तोला तब और वायु को निकाल कर तोला तब तुमको उसके वजन में कुछ न्यूनाधिकता यावत् लघुता मालूम हुई ? प्रदेशी-भदन्त ! यह अर्थ तो समर्थ नहीं है, यानी न्यूनाधिकता यावत् लघुता कुछ भी दृष्टिगत नहीं हुई। केशी कुमारश्रमण —तो इसी प्रकार हे प्रदेशी! जीव के अगुरुलघुत्व को समझ कर उस चोर के शरीर के जीवितावस्था में किये गये तोल में और मृतावस्था में किये गये तोल में कुछ भी नानात्व यावत् लघुत्व नहीं है। इसलिए हे प्रदेशी! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु जीव-शरीर एक नहीं है। २५८- तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी अस्थि णं भंते ! एसा जाव' नो उवागच्छइ, एवं खलु भंते -! अहं अन्नया जाव' चोरं १. देखें सूत्र संख्या २५४ २. देखें सूत्र संख्या २४८
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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