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________________ तज्जीव-तच्छरीवाद मंडन-खंडन १७९ भंते ! तस्स पुरिसस्स जुन्नाइं उवगरणाइं भवंति । पएसी ! से चेव से पुरिसे जुन्ने जाव' किलंते जुत्तोवगरणे नो पभू एगं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा—अन्नो जीवो अन्नं सरीरं । २५५– प्रदेशी राजा की इस बात को सुनकर केशी कुमारश्रमण ने राजा प्रदेशी से कहा—जैसे कोई एक तरुण यावत् कार्यनिपुण पुरुष नवीन कावड़ से, रस्सी से बने नवीन सीके से और नवीन टोकनी से एक बहुत बड़े, वजनदार लोहे के भार को यावत् (रांगे और सीसे के भार को) वहन करने में (उठाने, ढोने में) समर्थ है या नहीं है ? प्रदेशी–हां समर्थ है। केशी कुमारश्रमण —अब मैं पुनः तुम से पूछता हूं कि हे प्रदेशी! वही तरुण यावत् कार्यकुशल पुरुष क्या सड़ी-गली, पुरानी, कमजोर, घुन से खाई हुई कावड़ से, जीर्ण-शीर्ण, दुर्बल, दीमक के खाये एवं ढीले-ढाले सीके से और पुराने, कमजोर और दीमक लगे टोकने से एक बड़े वजनदार लोहे के भार आदि को ले जाने में समर्थ है ? प्रदेशी–हे भदन्त! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात् जीर्ण-शीर्ण कावड़ आदि से भार ले जाने में समर्थ नहीं केशी कुमारश्रमण—क्यों समर्थ नहीं है। - प्रदेशी—क्योंकि भदन्त! उस पुरुष के पास भारवहन करने के उपकरण साधन जीर्ण-शीर्ण हैं। केशी कुमारश्रमण—तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह पुरुष जीर्ण यावत् क्लान्त शरीर आदि उपकरणों वाला होने से एक भारी वजनदार लोहे के भार को यावत् (सीसे के भार को, रांगे के भार को) वहन करने में समर्थ नहीं है। इसीलिए प्रदेशी! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं। २५६- तए णं से पएसी केसिकुमारसमणं एवं वयासी अस्थि णं भंते ! जाव (एस पण्णा उवमा इमेण पुण कारणेणं) नो उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! जाव' विहरामि । तए णं मम णगरगुत्तिया चोरं उवणेति । तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतगं चेव तुलेमि, तुलेत्ता छविच्छेयं अकुव्वमाणे जीवियाओ ववरोवेमि, मयं तुलेमि, णो चेव णं तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स वा मुयस्स केइ आणत्ते वा, नाणत्ते वा, ओमत्ते वा, तुच्छत्ते वा, गुरुयत्ते वा, लहुयत्ते वा, जति णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स केइ अन्नत्ते वा जाव लहुयत्ते वा तो णं अहं सद्दहेज्जा तं चेव । जम्हा णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स नत्थि केइ अन्नत्ते वा लहुयत्ते वा तम्हा सुपतिट्ठिया मे पइन्ना जहा—तं जीवो तं चेव । २५६- इसके बाद उस प्रदेशी राजा ने केशी कुमार श्रमण से ऐसा कहा—हे भदन्त ! आपकी यह उपमा वास्तविक नहीं है, इससे जीव और शरीर की भिन्नता नहीं मानी जा सकती है। लेकिन जो प्रत्यक्ष कारण मैं बताता हूं, उससे यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर एक ही हैं। वह कारण इस प्रकार है१. देखे सूत्र संख्या २५४ २. देखें सूत्र संख्या २४८
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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