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________________ १७८ राजप्रश्नीयसूत्र हंता पभू । सो चेव णं भंते ! पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियदेहे सिढिलवलितयाविणट्ठगत्ते दंडपरिग्गहियग्गहत्थे पविरलपरिसडियदंतसेढी आउरे किसिए पिवासिए दुब्बले किलंते नो पभू एगं महं अयभारगं वा जाव परिवहित्तए, जति णं भंते ! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियदेहे जाव परिकिलंते पभू एवं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए तो णं सद्दहेज्जा तहेव, जम्हा णं भंते ! से चेव पुरिसे जुने जाव किलंते नो पभू एगं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए, तम्हा सुपतिट्ठिता मे पइण्णा तव । २५४— इस उत्तर को सुनकर प्रदेशी राजा ने पुनः केशी कुमारश्रमण से कहा- हे भदन्त ! यह तो प्रज्ञाजन्य उपमा है, वास्तविक नहीं है। किन्तु मेरे द्वारा प्रस्तुत हेतु से तो यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर में भेद नहीं है। वह हेतु इस प्रकार है— भदन्त ! कोई एक तरुण यावत् कार्यक्षम पुरुष एक विशाल वजनदार लोहे के भार की, सीसे के भारं को या रांगे के भार को उठाने में समर्थ है अथवा नहीं है ? केशी कुमार श्रमण –हां समर्थ है। प्रदेशी —— लेकिन भदन्त ! जब वही पुरुष वृद्ध जाए और वृद्धावस्था के कारण शरीर जर्जरित, शिथिल, झुर्रियों वाला एवं अशक्त हो, चलते समय सहारे के लिए हाथ में लकड़ी ले, दंतपंक्ति में से बहुत से दांत गिर चुके हों, खांसी, श्वास आदि रोगों से पीड़ित होने के कारण कमजोर हो, भूख-प्यास से व्याकुल रहता हो, दुर्बल और क्लान्त—थका-मांदा हो तो उस वजनदार लोहे के भार को, रांगे के भार को अथवा सीसे के भार को उठाने में समर्थ नहीं हो पाता है । हे भदन्त ! यदि वही पुरुष वृद्ध, जरा-जर्जरित शरीर यावत् परिक्लान्त होने पर भी उस विशाल लोहे के भार आदि को उठाने में समर्थ होता तो मैं यह विश्वास कर सकता था कि जीव शरीर से भिन्न है और शरीर जीव से भिन्न है, जीव और शरीर एक नहीं हैं। लेकिन भदन्त ! वह पुरुष वृद्ध यावत् क्लान्त हो जाने से एक विशाल लोहे भार आदि को उठाने में समर्थ नहीं है । अत: मेरी यह धारणा सुसंगत — समीचीन है कि जीव और शरीर, दोनों एक ही हैं, किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। २५५— तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवियाए विहंगियाए, णवएहिं सिक्कएहिं, णवएहिं पच्छियपिंडएहिं पहू एगं महं अयभारं जाव ( वा तउयभारं वा सीसगभारं वा ) परिवहित्तए ? हंता भू । पएसी ! से चेव णं पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए जुन्नियाए दुब्बलियाए घुणक्खइयाए विहंगियाए जुण्णएहिं दुब्बलएहिं घुणक्खइएहिं सिढिलतयापिणद्धएहिं सिक्कएहिं, जुण्णएहिं दुब्बलिएहिं घुणखइएहिं पच्छिपिंडएहिं पभू एगं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए ? णो तिट्ठे समट्टे । काणं ?
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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