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राजप्रश्नीयसूत्र मनुष्यलोक में देवों के न आने के जो कारण यहां बताये हैं, इसी प्रकार दीघनिकाय में भी कहा है कि
इस मनुष्यलोक के सौ वर्षों के बराबर त्रायस्त्रिंश देवों का एक दिन-रात होता है। ऐसे सौ-सौ वर्ष जितने समय वाले तीस दिन-रात होते हैं, तब देवों का एक मास और ऐसे बारह मास का एक वर्ष होता है। इन त्रायस्त्रिंश देवों का ऐसे दिव्य हजार वर्षों जितना दीर्घ आयुष्य होता है। ये देव भी विचार करते हैं कि दो-तीन दिन में इन दिव्य कामगुणों को भोगने के बाद अपने मानव-सम्बन्धियों को समाचार देने जाऊंगा इत्यादि।
यहां मनुष्यलोक सम्बन्धी दुर्गन्ध ऊपर आकाश में चार-सौ, पांच-सौ योजन तक पहुंचने का उल्लेख किया है, इसके बदले दीघनिकाय में कहा है कि देवों की दृष्टि में मनुष्य अपवित्र है, दुरभिगंध वाला है, घृणित है। मनुष्यलोक सम्बन्धी दुर्गन्ध ऊपर सौ योजन तक पहुंचकर देवों को बाधा उत्पन्न करती है।
प्रस्तुत में चार-सौ, पांच-सौ योजन तक दुर्गन्ध पहुंचने का जो उल्लेख किया है उसकी नौ योजन से अधिक दूर से आते सुगंध पुद्गल घ्राणेन्द्रिय के विषय नहीं हो सकते हैं इस शास्त्रीय उल्लेख से किस प्रकार संगति बैठ सकती है ? क्योंकि नौ योजन से अधिक दूर से जो पुद्गल आते हैं उनकी गंध अत्यन्त मंद हो जाती है, जिससे वे घ्राणेन्द्रिय के विषय नहीं हो सकते हैं।
___ इसका समाधान करते हुए टीकाकार ने कहा है कि यद्यपि नियम तो ऐसा ही है किन्तु जो पुद्गल अति उत्कट गंध वाले होते हैं, उनके नौ योजन तक पहुंचने पर जो दूसरे पुद्गल उनसे मिलते हैं, उनमें अपनी गन्ध संक्रांत कर देते हैं और फिर वे पुद्गल भी आगे जाकर दूसरे पुद्गलों को अपनी गंध से वासित कर देते हैं। इस प्रकार ऊपरऊपर पुद्गल चार सौ, पांच-सौ योजन तक पहुंचते हैं। परन्तु यह बात लक्ष्य में रखने योग्य है कि ऊपर-ऊपर वह गंध मंद-मंद होती जाती है। इसी प्रकार से मनुष्यलोक सम्बन्धी दुर्गन्ध साधारणतया चार सौ योजन तक और यदि दुर्गन्ध अत्यन्त तीव्र हो तब पांच सौ योजन तक पहुंचती है, इसीलिए मूलशास्त्र में चार सौ, पांच सौ ये दो संख्यायें बताई हैं।
__ इस सम्बन्ध में स्थानांग के टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि का मंतव्य है कि इससे मनुष्यक्षेत्र के दुर्गन्धित स्वरूप को सूचित किया गया है। वस्तुतः देव अथवा दूसरा कोई नौ योजन से अधिक दूर से आगत पुद्गलों की गंध नहीं जानता है, जान नहीं सकता है। शास्त्र में इन्द्रियों का जो विषयप्रमाण बतलाया है, वह संभव है कि औदारिक शरीर सम्बन्धी इन्द्रियों की अपेक्षा कहा हो। भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुखमा काल होने पर उसकी दुर्गन्ध चार सौ योजन तक और वह काल न हो तब पांच सौ योजन तक पहुंचती है, इसीलिए दो संख्याएं बताई हैं।
२४८- तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी
अत्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छति, एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाइं वाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अणेग गणणायक-दंडणायग-राय-ईसरतलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-मंति-महामंति, गणग-दोवारिय-अमच्चचेड-पीढमद्द-नगर-निगम-दूय-संधिवालेहिं सद्धिं संपरिवुडे विहरामि । तए णं मम णगरगुत्तिया ससक्खं सलोइं सगेवेज्जं अवउडबंधणबद्धं चोरं उवणेति ।
तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतं चेव अउकुंभीए पक्खिवावेमि, अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि, अएण य तउएण य आयावेमि, आयपच्चइयएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि ।