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तज्जीव-तच्छरीवाद मंडन-खंडन
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प्रदेशी—हे भदन्त! यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् उस पुरुष की बात स्वीकार नहीं करूंगा। कुमारश्रमण केशीस्वामी उस पुरुष की बात क्यों स्वीकार नहीं करोगे? प्रदेशी—क्योंकि भदन्त! वह स्थान अपवित्र है और अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ—व्याप्त है।
केशी कुमारश्रमण —तो इसी प्रकार प्रदेशी! इसी सेयविया नगरी में तुम्हारी जो दादी धार्मिक यावत् धर्मानुरागपूर्वक जीवन व्यतीत करती थीं और हमारी मान्यतानुसार वे बहुत से पुण्य का संचय करके यावत् देवलोक में उत्पन्न हुई हैं तथा उन्हीं दादी के तुम इष्ट यावत् दुर्लभदर्शन जैसे पौत्र हो। वे तुम्हारी दादी भी शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की अभिलाषी हैं किन्तु आ नहीं सकतीं।
हे प्रदेशी ! अधुनोत्पन्न देव देवलोक से मनुष्यलोक में आने के आकांक्षी होते हुए भी इन चार कारणों से आ नहीं पाते हैं
१. तत्काल उत्पन्न देव देवलोक के दिव्य कामभोगों में मूछित, गृद्ध, आसक्त और तल्लीन हो जाने में मानवीय भोगों के प्रति आकर्षित नहीं होते हैं, न ध्यान देते हैं और न उनकी इच्छा करते हैं। जिससे वे मनुष्यलोक में आने की आकांक्षा रखते हुए भी आने में समर्थ नहीं हो पाते हैं।
२. देवलोक सम्बन्धी दिव्य कामभोगों में मूछित यावत् तल्लीन हो जाने से अधुनोत्पन्नक देव का मनुष्य संबंधी प्रेम (आकर्षण) विच्छिन्न समाप्त-सा हो जाता है—टूट जाता है और देवलोक सम्बन्धी अनुराग संक्रांत हो जाने से मनुष्य लोक में आने की अभिलाषा रखते हुए भी यहां आ नहीं पाते हैं।
३. अधुनोत्पन्न देव देवलोक में जब दिव्य कामभोगों में मूछित यावत् तल्लीन हो जाते हैं तब वे सोचते तो हैं कि अब जाऊं, अब जाऊं, कुछ समय बाद जाऊंगा, किन्तु उतने समय में तो उनके इस मनुष्यलोक में अल्पआयुषी सम्बन्धी कालधर्म (मरण) को प्राप्त हो चुकते हैं। जिससे मनुष्यलोक में आने की अभिलाषा रखते हुए भी वे यहां आ नहीं पाते हैं। ____ ४. वे अधुनोत्पन्नक देव देवलोक के दिव्य कामभोगों में यावत् तल्लीन हो जाते हैं कि जिससे उनकी मर्त्यलोक सम्बन्धी अतिशय तीव्र दुर्गन्ध प्रतिकूल और अनिष्टकर लगती है एवं उस मानवीय कुत्सित दुर्गन्ध के ऊपर आकाश में चार-पांच सौ योजन तक फैल जाने से मनुष्यलोक में आने की इच्छा रखते हुए भी वे उस दुर्गन्ध के कारण आने में असमर्थ हो जाते हैं।
अतएव हे प्रदेशी! मनुष्यलोक में आने के इच्छुक होने पर भी इन चार कारणों से अधुनोत्पन्न देव देवलोक से यहां आ नहीं सकते हैं। इसलिए प्रदेशी! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं है और न शरीर जीव है।
विवेचन- यहां दिये गये देवकुल में प्रवेश करने के उदाहरण के स्थान पर दीघनिकाय में कुमार काश्यप ने दूसरा उदाहरण दिया है—जैसे कोई पुरुष दुर्गन्धमय कूप में पड़ा हो और उसका शरीर मल से लिप्त हो और उस पुरुष को बाहर निकलकर स्नान, शरीर पर सुगंधित तेल आदि का विलेपन और माला आदि से शृंगारित करने के बाद पुनः उसे दुर्गन्धित कूप में घुसने के लिए कहा जाए तो क्या वह उसमें घुसेगा?
प्रत्युत्तर में राजा ने कहा—नहीं घुसेगा।
काश्यप तो इसी प्रकार दुर्गन्धित मनुष्यलोक से स्वर्ग में पहुंचे हुए देव पुनः दूसरी बार दुर्गन्धमय मर्त्यलोक में आयेंगे क्या इत्यादि?