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________________ तज्जीव-तच्छरीवाद मंडन-खंडन १७३ तए णं अहं अण्णया कयाइं जेणामेव सा अउकुंभी तेणामेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता तं अउकुंभिं उग्गलच्छावेमि, उग्गलच्छावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि, णो चेव णं तीसे अयकुंभीए केइ छिड्डे इ वा विवरे वा अंतरे इ वा राई वा जओ णं से जीवे अंतोहिंतो बहिया णिग्गए । जइ णं भंते ! तीसे अउकुंभीए होज्जा केई छिड्डे वा जाव राई वा जओ णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए, तो णं अहं सद्दहेज्जा-पत्तिएज्जा-रोएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं, जम्हा णं भंते ! तीसे अउकुंभीए णत्थि केइ छिड्डे वा जाव निग्गए, तम्हा सुपतिट्ठिया मे पइन्ना जहा—तं जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं । २४८-केशी कमारश्रमण के इस उत्तर को सनने के अनन्तर राजा प्रदेशी ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा ___ हे भदन्त ! जीव और शरीर की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए आपने देवों के नहीं आने के कारण रूप में जो उपमा दी, वह तो बुद्धि से कल्पित एक दृष्टान्त मात्र है और देव इन कारणों से मनुष्यलोक में नहीं आते हैं। परन्तु भदन्त ! किसी एक दिन मैं अपने अनेक गणनायक (समूह के मुखिया), दंडनायक (अपराध का विचार करने वाले), राजा (जागीरदार), ईश्वर (युवराज), तलवर (राजा की ओर से स्वर्णपट्ट प्राप्त करने वाले), माडंबिक(पांच सौ गांव के स्वामी), कौटुम्बिक (ग्राम प्रधान), इब्भ (अनेक करोड़ धन-संपत्ति के स्वामी), श्रेष्ठी (प्रमुख व्यापारी), सेनापति, सार्थवाह (देश-देशान्तर जाकर व्यापार करने वाले), मंत्री, महामंत्री, गणक (ज्योतिषशास्त्रवेत्ता), दौवारिक (राजसभा का रक्षक), अमात्य, चेट (सेवक), पीठमर्दक (समवयस्क मित्र विशेष), नागरिक, व्यापारी, दूत, संधिपाल आदि के साथ अपनी बाह्य उपस्थानशाला (सभाभवन) में बैठा हुआ था। उसी समय नगर-रक्षक चुराई हुए वस्तु और साक्षी-गवाह सहित गरदन और पीछे दोनों हाथ बांधे एक चोर को पकड़ कर मेरे सामने लाये। तब मैंने उसे जीवित ही एक लोहे की कभी में बंद करवा कर अच्छी तरह लोहे के ढक्कन से उसका मुख ढंक दिया। फिर गरम लोहे एवं रांगे से उस पर लेप करा दिया और देखरेख के लिए अपने विश्वासपात्र पुरुषों को नियुक्त कर दिया। तत्पश्चात् किसी दिन मैं उस लोहे की कुंभी के पास गया। वहां जाकर मैंने उस लोहे की कुंभी को खुलवाया। खुलवा कर मैंने स्वयं उस पुरुष को देखा तो वह मर चुका था। किन्तु उस लोह कुंभी में राई जितना न कोई छेद था, न कोई विवर था, न कोई अंतर था और न कोई दरार थी कि जिसमें से उस (अंदर बंद) पुरुष का जीव बाहर निकल जाता। यदि उस लोहकुंभी में कोई छिद्र यावत् दरार होती तो हे भदन्त ! मैं यह मान लेता कि भीतर बंद पुरुष का जीव बाहर निकल गया है और तब उससे आपकी बात पर विश्वास कर लेता, प्रतीति कर लेता एवं अपनी रुचि का विषय बना लेता–निर्णय कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु जीव शरीर रूप नहीं और शरीर जीव रूप नहीं है। ____ लेकिन उस लोहकुंभी में जब कोई छिद्र ही नहीं है यावत् जीव नहीं है तो हे भदन्त! मेरा यह मंतव्य ठीक है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है, जीव शरीर से भिन्न नहीं और शरीर जीव से भिन्न नहीं है।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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