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शंख, वीर, शिव, भद्र आदि राजाओं ने एक साथ दीक्षा ग्रहण की थी। इससे विज्ञों का यह अभिमत है कि सभी राजागण एक ही दिन दीक्षित हुए थे। मलयगिरि ने 'सेय' का संस्कृत रूपान्तर श्वेत किया है। इसी तरह धारिणी नाम अन्य आगमों में अनेक स्थलों पर आया है। औपपातिक सूत्र में राजा कूणिक की रानी का नाम भी धारिणी है तथा अन्यत्र भी इस नाम का प्रयोग हुआ है। सम्भव है, गर्भ को धारण करने के कारण 'धारिणी' कहलाती हो। भले ही उसका व्यक्तिगत नाम अन्य कुछ भी रहा हो। वास्तुकला का उत्कृष्ट रूप : विमान
सौधर्म स्वर्ग के 'सूर्याभ' नामक देव ने अपने दिव्य ज्ञान से निहार—श्रमण भगवान् महावीर आमलकप्पा के अम्बसाल चैत्य में विराज रहे हैं। उसने वहीं से भगवान् को वन्दन किया और अपने आभियोगिक देवों को आदेश दिया कि वे शीघ्र ही प्रभु महावीर की सेवा में पहुंचे और वहां की आसपास की भूमि को साफ कर सुगन्धित द्रव्यों से महका दें। तदनुसार आज्ञा का पालन किया गया। सूर्याभ देव ने अपने सेनापति को बुलाकर अत्यन्त कलात्मक विमान की रचना करने की आज्ञा दी। विमान का वर्णन वास्तुकला की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अपूर्व एवं अद्भुत है। विमान के तीन ओर सोपान बनाये गये थे। तीनों सोपानों के सामने मणि-मुक्ताओं और तारिकाओं से रचित तोरण लगाये गये। उन तोरणों पर आठ मंगल स्थापित किये गये। रंग-बिरंगी ध्वजायें, छत्र, घण्टे और सुन्दर कमलों के गुच्छे लगाये गये। विमान का केवल बाह्य भाग ही सुन्दर नहीं था अपितु अन्दर के भाग में इस प्रकार कलात्मक मणियां जड़ी गई थीं कि दर्शक देखते ही मंत्रमुग्ध हो जायें। तथा इस प्रकार के चित्र उटैंकित किये गये थे कि अवलोकन करने वाला ठगा-सा रह जाय। विमान के मध्य में प्रेक्षागृह का निर्माण किया गया, जिसमें अनेक खम्भे बनाये गये। ऊंची वेदिकायें, तोरण, शाल-भंजिकायें स्थापित की गईं। ईहामृग, वृषभ, हाथी, घोड़े, वनलता प्रभृति के सुन्दर चित्र अंकित किये गये। स्वर्णमय और रत्नमय स्तूप स्थापित किये गये। सुगन्धित द्रव्यों से उसे महकाया गया। मण्डल के चारों ओर वाद्यों की सुरीली स्वर-लहरियां झनझनाने लगीं। मण्डप के मध्यभाग में प्रेक्षकों के बैठने का स्थान निर्मित किया गया। उनमें एक पीठिका स्थापित की। उस पर सिंहासन रखा, जो कलात्मक था। सिंहासन के आगे मुलायम पादपीठ रखा। सिंहासन श्वेत वर्ण के विजयदूष्य से सुशोभित था। उसके मध्य में अंकुश के आकार की एक खूटी थी, जिस पर मोतियों की मालायें लटक रही थीं। अनेक प्रकार के रत्नों के हार दमक रहे थे। इस विमान में सूर्याभ देव की मुख्य देवियों तथा अन्य आभ्यन्तर परिषद्, सेनापति आदि के बैठने के लिए भद्रासन बिछे हुए थे। सूर्याभ देव अपने स्थान पर आसीन हुआ और अन्य देवगण भी अपने-अपने आसनों पर अवस्थित हुए। विमान अत्यन्त द्रुत गति से चला। असंख्यात द्वीप, समुद्रों को लांघता हुआ जहां भगवान् महावीर विराज रहे थे, वहां उतरा। सूर्याभदेव अपने परिवार सहित भगवान् के श्री-चरणों में पहुंचा।
भगवान् महावीर के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए उपदेश को श्रवण कर आमलकप्पा के नागरिक यथास्थान लौट गये। सूर्याभ देव ने अपने अन्तर्हदय की जिज्ञासाएं प्रस्तुत की। भगवान् से समाधान पाकर वह परम संतुष्ट हुआ। प्रेक्षामण्डप की संरचना की। विविध प्रकार के चमचमाते हुए वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एक सौ आठ देवकुमार तथा एक सौ आठ देवकुमारियां आविर्भूत हुईं। ३९. "पत्तो पोयणपुरं, तहिं च संखवीरसिवभद्दपमहा नरिन्दा दिक्खा गाहिया ।"
-श्री गुणचन्द महावीरचरित्त, प्रस्ताव ८, पत्र ३३७ ४०. ठाणं-जैन विश्वभारती, लाडनूं, पृष्ठ ८३७
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