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________________ राजप्रश्नीयसूत्र कान्त ( अभिलाषित), प्रिय, मनोज्ञ, मणाम (अति प्रिय), धैर्य और विश्वास का स्थान ( आधार, पात्र), कार्य करने में सम्मत (माना हुआ), बहुत कार्य करने से माना हुआ तथा कार्य करने के बाद भी अनुमत, रत्नकरंडक (आभूषणों की पेटी) के समान, जीवन की श्वासोच्छ्वास के समान, हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला, गूलर के फूल के समान जिसका नाम सुनना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की बात ही क्या है, ऐसा पौत्र हूं। इसलिए यदि मेरे पितामह आकर मुझ से इस प्रकार कहें कि— १६६ पौत्र ! मैं तुम्हारा पितामह था और इसी सेयविया नगरी में अधार्मिक यावत् प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप में उनका पालन, रक्षण नहीं करता था । इस कारण मैं बहुत एवं अतीव कलुषित पापकर्मों का संचय करके नरक में उत्पन्न हुआ हूं। किन्तु हे नाती (पौत्र) ! तुम अधार्मिक नहीं होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन, रक्षण में प्रमाद मत करना और न बहुत से मलिन पाप कर्मों का उपार्जन — संचय ही करना । तो मैं आपके कथन पर श्रद्धा कर सकता हूं, प्रतीति (विश्वास) कर सकता हूं एवं उसे अपनी रुचि का विषय बना सकता हूं कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है। जीव और शरीर एक रूप नहीं हैं। लेकिन जब तक मेरे पितामह आकर मुझसे ऐसा नहीं कहते तब तक हे आयुष्मन् श्रमण ! मेरी यह धारणा सुप्रतिष्ठित — समीचीन है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है। विवेचन— यहां राजा पएसी (प्रदेशी) ने अपने दादा का दृष्टान्त देकर जो कथन किया है, उसी बात को दीघनिकाय में राजा पायासि ने अपने मित्रों का उदाहरण देकर कहा है। दीघनिकाय में जिसका उल्लेख इस प्रकार से किया गया है— राजा पायासि और कुमार काश्यप के मिलने पर पायासि अपनी शंका काश्यप के समक्ष उपस्थित करता है और काश्यप उसका समाधान करते हैं कि राजन्य ! ये सूर्य, चन्द्र क्या हैं ? वे इहलोक हैं या परलोक हैं ? देव हैं या मानव हैं ? अर्थात् इन उदाहरणों के द्वारा काश्यप परलोक की सिद्धि करते हैं । किन्तु राजा को यह बात समझ में नहीं आती है और वह पुन: कहता है— मेरे कुछ ज्ञातिजन एवं मित्र प्राणातिपात —— हिंसा आदि पापकार्यों में निरत रहते थे, उनको मैंने कह रहा था कि हिंसादिक पापकर्मों से तुम नरक में जाओ तो मुझे इसकी सूचना देना। लेकिन वे यहां आये नहीं और न कोई दूत भी भेजा । इसलिए परलोक नहीं है, मेरी यह श्रद्धा सुसंगत है। २४५ – तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वदासी— अत्थि णं पएसी ! तव सूरियकंता णामं देवी ? हंता अत्थि । जइ णं तुमं पएसी ! तं सूरियकंतं देविं हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं केणइ पुरिसेणं ण्हाएणं जाव सव्वालंकारविभूसिएणं सद्धिं इट्ठे सद्दफरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सर कामभोगे पच्चणुब्भवमाणिं पासिज्जासि, तस्स णं तुमं पसी ! पुरिसस्स कं दंडं निव्वत्तेज्जासि ? अहं णं भंते ! तं पुरिसं हत्थच्छिण्णगं वा, सूलाइगं वा, सूलभिन्नगं वा, पायछिन्नगं वा, एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवएज्जा । अह णं पएसी से पुरिसे तुमं एवं वदेज्जा — 'मा ताव मे सामी ! मुहुत्तगं हत्थछिण्णगं वा
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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