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________________ तज्जीव-तच्छरीवाद मंडन-खंडन १६५ रूप प्रत्यक्षादि प्रमाणसंगत मंतव्य है और स्वीकृत सिद्धान्त है कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है ? अर्थात् जीव शरीर भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले हैं ? शरीर और जीव दोनों एक नहीं हैं ? २४३- तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी—पएसी ! अम्हं समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव' एस समोसरणे, जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं । २४३– प्रदेशी राजा के प्रश्न को सुनकर प्रत्युत्तर में केशी कुमार श्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा हे प्रदेशी! हम श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् समोसरण—सिद्धान्त है कि जीव भिन्न—पृथक् है और शरीर भिन्न है, परन्तु जो जीव है वही शरीर है, ऐसी धारणा नहीं है। २४४ – तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी–जति णं भंते ! तुब्भं समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव' समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं, एवं खलु ममं अज्जए होत्था, इहेव जंबूदीवे दीवे सेयवियाए णगरीए अधम्मिए जावर सगस्स वि य णं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेति, से णं तुब्भं वत्तव्वयाए सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसु णेरइयत्ताए उववण्णे । ___तस्स णं अज्जगस्स णं अहं णत्तुए होत्था इटे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेग्जे वेसासिए संमए बहुमए अणुमएं रयणकरंडगसमाणे जीविउस्सविए हियणंदिजणणे उंबरपुष्कं पिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? तं जति णं से अजए ममं आगंतुं वएग्जा एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जए होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेमि, तए णं अहं सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता नरएसु उववण्णे, तं मा णं नत्तुया ! तुमं पि भवाहि अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेहि, मा णं तुमं पि एवं चेव, सुबहुं पावकम्मं जाव उववज्जिहिसि । तं जइ णं से अज्जए ममं आगंतुं वएज्जा तो णं अहं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं । जम्हा णं से अज्जए ममं आगंतुं नो एवं वयासी तम्हा सुपइट्ठिया मम पइन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीरं । २४४– तब प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा हे भदन्त! यदि आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् सिद्धान्त है कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, किन्तु ऐसी मान्यता नहीं है कि जो जीव है वही शरीर है, तो मेरे पितामह, जो इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप की सेयविया नगरी में अधार्मिक यावत् राजकर लेकर भी अपने जनपद का भली-भांति पालन, रक्षण नहीं करते थे, वे आपके कथनानुसार अत्यन्त कलुषित पापकर्मों को उपार्जित करके मरण-समय में मरण करके किसी एक नरक में नारक रूप में उत्पन्न हुए हैं। उन पितामह का मैं इष्ट, १-२. देखें सूत्र संख्या २४२ ३. देखें सूत्र संख्या २२६
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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