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राजप्रश्नीयसूत्र
११-१२. गमिक-अगमिक श्रुत- जिस श्रुत के आदि, मध्य और अवसान में किंचित् विशेषता रखते हुए पुनः-पुनः पूर्वोक्त शब्दों का उच्चारण हो, उसे गमिक श्रुत और जिस शास्त्र में पुनः-पुनः एक सरीखे पाठ न आते हों, उसे अगमिक श्रुत कहते हैं।
१३-१४. अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य श्रुत—जिन शास्त्रों की रचना तीर्थंकरों के उपदेशानुसार गणधर स्वयं करते हैं, वे अंगप्रविष्ट तथा गणधरों के अतिरिक्त अंगों का आधार लेकर स्थविरों द्वारा प्रणीत शास्त्र अंगबाह्य कहलाते हैं।
अंगप्रविष्ट श्रुत के आचारांग आदि बारह भेद हैं।
आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त के भेद से अंगबाह्य श्रुत दो प्रकार का है। गुणों के द्वारा आत्मा को वश में करना आवश्यकीय है, ऐसा वर्णन जिसमें हो, उसे आवश्यक श्रुत कहते हैं। आवश्यक श्रुत के छह भेद हैं- १. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग और ६. प्रत्याख्यान तथा आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुत के दो भेद हैं—कालिक और उत्कालिक।
जो शास्त्र दिन और रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में पढ़े जाते हैं, वे कालिक और जिनका कालवेला वर्ज कर अध्ययन किया जाता है अर्थात् अस्वाध्याय के समय को छोड़कर शेष रात्रि और दिन में पढ़े जाते हैं, वे उत्कालिक शास्त्र कहलाते हैं। उत्कालिक और कालिक शास्त्र अनेक प्रकार के हैं।
इन सभी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य शास्त्रों का विशेष परिचय नंदीसूत्र और उसकी चूर्णि एवं वृत्ति में दिया गया है। तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन
२४२– तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी–अह णं भंते ! इहं उवविसामि ?
पएसी ! एसाए उज्जाणभूमीए तुमंसि चेव जाणए ।
तए णं से पएसी राया चित्तेणं सारहिणा सद्धिं केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसइ, केसिकुमारसमणं एवं वदासी–तुब्भे णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा, एसा पइण्णा, एसा दिट्ठी, एसा रुई, एस हेऊ, एस उवएसे, एस संकप्पे, एसा तुला, एस माणे, एस पमाणे, एस समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं ?
२४२– केशीस्वामी के कथन को सुनने के अनन्तर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन कियाभदन्त! क्या मैं यहां बैठ जाऊं ?
केशी हे प्रदेशी ! यह उद्यानभूमि तुम्हारी अपनी है, अतएव बैठने या न बैठने के विषय में तुम स्वयं समझ लो निर्णय कर लो।
____ तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा केशी कुमारश्रमण के समीप बैठ गया और बैठकर केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार पूछा
भदन्त! क्या आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी सम्यग्ज्ञान रूप संज्ञा है, तत्त्वनिश्चय रूप प्रतिज्ञा है, दर्शन रूप दृष्टि है, श्रद्धानुगत अभिप्राय रूप रूचि है, अर्थ का प्रतिपादन करने रूप हेतु है, शिक्षा वचन रूप उपदेश है, तात्त्विक अध्यवसाय रूप संकल्प है, मान्यता है, तुला-समीचीन निश्चयकसौटी है, दृढ़ धारणा है, अविसंवादी दृष्ट एवं इष्ट