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केशी कुमारभ्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन
मन से होने के कारण धारणा के भी छह भेद हैं।
अवग्रह आदि चारों में से अवग्रह का काल एक समय, ईहा और अवाय का अन्तर्मुहूर्त्त तथा धारणा का संख्यात, असंख्यात समय प्रमाण है। पांच इन्द्रियों और मन, इन छह निमित्तों से होने वाले अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के छह-छह भेद हैं तथा मन और चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से होने के कारण व्यंजनावग्रह के चार भेद हैं। सब मिलाकर ये अट्ठाईस (२८) भेद हैं। ये सब पुनः विषय और क्षयोपशम की विविधता से १२ - १२ प्रकार के हैं। जिससे अवग्रहादि रूप श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के कुल मिलाकर ३३६ भेद हो जाते हैं। अश्रुतनिश्रित के औत्पत्तिकीबुद्धि आदि चार भेदों को मिलाने से मतिज्ञान के ३४० भेद होते हैं।
क्षायोपशमिक विविधता के बारह प्रकार ये हैं
१- २. बहु- अल्पग्राही, ३ - ४. बहुविध - एकविधग्राही, ५- ६. क्षिप्र - अक्षिप्रग्राही, ७ - ८. निश्रित - अनिश्रितग्राही, ९-१०. असंदिग्ध-संदिग्धग्राही, ११-१२. ध्रुव - अध्रुवग्राही ।
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श्रुतज्ञान के भेदों का विचार विस्तार और संक्षेप, इन दो दृष्टियों से किया गया है। विस्तार से श्रुतज्ञान के चौदह भेदों के नाम इस प्रकार हैं
१- २. अक्षर-अनक्षर श्रुत, ३-४ संज्ञी - असंज्ञी श्रुत, ५ - ६. सम्यक् - मिथ्या श्रुत, ७-८ सादि-अनादि श्रुत, ९-१०. सपर्यवसित-अपर्यवसित श्रुत, ११-१२. गमिक - अगमिक श्रुत, १३-१४. अंगप्रविष्ट - अंगबाह्य श्रुत ।
१- २. अक्षर-अक्षर श्रुत — क्षर् संचलने धातु से अक्षर बनता है, 'न क्षरति न चलति इत्यक्षरम्' अर्थात् जो अपने स्वरूप से चलित नहीं होता, उसे अक्षर कहते हैं। इसीलिए ज्ञान का नाम अक्षर है। इसके संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर, ये तीन भेद हैं। अक्षर की आकृति - संस्थान, बनावट को संज्ञाक्षर कहते हैं। उच्चारण किये जानेबोले जाने वाले अक्षर व्यंजनाक्षर हैं और शब्द को सुनकर अर्थ का अनुभवपूर्वक पर्यालोचन होना लब्धि- अक्षर कहलाता है। अनक्षरश्रुत अनेक प्रकार का है। छींकना, श्वासोच्छ्वास आदि सब अनक्षरश्रुत रूप हैं।
३-४. संज्ञि - असंज्ञी श्रुत संज्ञी और असंज्ञी जीवों के श्रुत को क्रमशः संज्ञि, असंज्ञि श्रुत कहते हैं । कालिकी-उपदेश, हेतु-उपदेश और दृष्टिवाद - उपदेश के भेद से संज्ञिश्रुत तीन प्रकार का है।
ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, इस प्रकार के विचार-विमर्श से वस्तु के स्वरूप को अधिगत करने की शक्ति जिसमें है, वह कालिकी - उपदेश से संज्ञी है और जिसमें उक्त ईहा, अपोह आदि रूप शक्ति नहीं, वह असंज्ञी है।
जिस जीव की विचारपूर्वक क्रिया करने में प्रवृत्ति होती है, वह हेतु उपदेश की अपेक्षा से संज्ञी है और जिसमें विचारपूर्वक क्रिया करने की शक्ति नहीं, वह असंज्ञी है । .
दृष्टि दर्शन का नाम है और सम्यग्ज्ञान का नाम संज्ञा है। ऐसी संज्ञा जिसमें हो, उसे दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी कहते हैं, उक्त संज्ञा जिसमें नहीं वह असंज्ञी है ।
५- ६. सम्यक् मिथ्या श्रुत — सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भगवन्तों द्वारा प्ररूपित श्रुत सम्यक् श्रुत और मिथ्यादृष्टि स्वच्छन्द बुद्धि वालों के द्वारा कहा गया श्रुत मिथ्या श्रुत कहलाता है। आचारांग आदि दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादशांग रूप तथा सम्पूर्ण दशपूर्वधारी द्वारा कहा गया श्रुत सम्यक् श्रुत है।
७-८-९-१०. सादि, सपर्यवसित, अनादि, अपर्यवसित श्रुत — व्यवच्छित्ति—पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सादि सपर्यवासित (सान्त) है और अव्यवच्छित्ति—द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादिअपर्यवसित (अनन्त) है ।