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राजप्रश्नीयसूत्र ___ केवलज्ञान दो प्रकार का है—भवस्थ केवलज्ञान और सिद्ध-केवलज्ञान। भवस्थ-केवलज्ञान सयोगिकेवलि और अयोगिकेवलि गुणस्थानतवर्ती जीवों को होता है।
सिद्ध केवलज्ञान सिद्धों को होता है। उसके भी दो भेद हैं—१. अनन्तर-सिद्ध केवलज्ञान और २. परंपरसिद्ध केवलज्ञान। जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम ही समय है और जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो गये हैं, उन्हें क्रमशः अनन्तरसिद्ध और परंपरसिद्ध कहते हैं और उनका केवलज्ञान अनन्तर सिद्ध-केवलज्ञान एवं परंपरसिद्धकेवलज्ञान कहलाता है।
द्रव्य से केवलज्ञानी सर्व द्रव्यों को जानता है, क्षेत्र से सर्व लोकालोक को जानता है, काल से भूत, वर्तमान और भविष्य, इन तीनों कालवर्ती द्रव्यों को जानता है और भाव से सर्व भावों—पर्यायों को जानता है।
पूर्वोक्त प्रकार से प्रत्यक्ष ज्ञानों की संक्षेप में रूपरेखा बतलाने के अनन्तर अब परोक्ष ज्ञानों का वर्णन करते हैं।
आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित के भेद से दो प्रकार का है। श्रुतज्ञान के संस्कार के आधार से उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान को श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहते हैं और जो तथाविध क्षयोपशमभाव से उत्पन्न हो, जिसमें श्रुतज्ञान के संस्कार की अपेक्षा न हो, वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान है।
अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान चार प्रकार का है
१. औत्पत्तिकीबुद्धि— तथाविध क्षयोपशमभाव के कारण और शास्त्र-अभ्यास के बिना अचानक जिस बुद्धि की उत्पत्ति हो।
२. वैनयिकीबुद्धि- गुरु आदि की विनय-भक्ति से उत्पन्न बुद्धि। ३. कर्मजाबुद्धि-शिल्पादि के अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि। ४. पारिणामिकीबुद्धि-चिरकालीन पूर्वापर पर्यालोचन से उत्पन्न बुद्धि । श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार भेद हैं—(१) अवग्रह, (२) ईहा, (३) अवाय, (४) धारणा।
१. जो अनिर्देश्य सामान्य मात्र अर्थ को जानता है, उसे अवग्रह कहते हैं। इसके दो भेद हैं—अर्थावग्रह, व्यंजनाग्रह । जो सामान्य मात्र का ग्रहण होता है, उसे अर्थावग्रह कहते हैं। पांच इन्द्रियों और मन से अर्थावग्रह होने से अर्थावग्रह के छह भेद हैं। प्राप्यकारी श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा (जीभ) और स्पर्शन, इन चार इन्द्रियों से बद्ध स्पृष्ट अर्थों का जो अत्यन्त अव्यक्त सामान्यात्मक ग्रहण हो, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। इन चार इन्द्रियों से होने के कारण व्यंजनावग्रह के चार भेद हैं। ___ अर्थावग्रह में अभ्यस्तदशा तथा विशिष्ट क्षयोपशम की अपेक्षा है और व्यंजनावग्रह अनभ्यस्तावस्था एवं क्षयोपशम की मंदता में होता है। अर्थावग्रह का काल एक समय है, किन्तु व्यंजनावग्रह का असंख्यात समय है।
२. अवग्रह के उत्तर और अवाय से पूर्व सद्भूत अर्थ की पर्यालोचना रूप चेष्टा को ईहा कहते हैं। अथवा अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा अथवा अवग्रह द्वारा गृहीत सामान्य विषय को विशेष रूप से निश्चित करने के लिए होने वाली विचारणा ईहा है। पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा होने से ईहा के तत्तत् नामक छह भेद हैं।
३. ईहा के द्वारा ग्रहण किये अर्थों का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना, अवाय कहलाता है। ईहा की तरह इसके भी छह भेद हैं।
४. निर्णीत अर्थ का धारण करना अथवा कालान्तर में भी उसकी स्मृति हो आना धारणा है। पांच इन्द्रियों और