SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन १६१ मन और इन्द्रियों के आश्रित होने से परोक्ष ही है। जब हम इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कोटि में ग्रहण करते हैं तो वहां यह आशय समझना चाहिए कि लोकप्रतिपत्ति, व्यवहार की दृष्टि से वह ज्ञान प्रत्यक्ष है, लेकिन यथार्थतः तो साक्षात् आत्मा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान ही प्रत्यक्ष कहलाता है। इन दोनों दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए जैनदर्शन में प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो भेद किये हैं। नन्दीसूत्र में इन दोनों के लिए क्रमशः इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया है। स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र के भेद से इन्द्रियां पांच होने से इन्द्रियप्रत्यक्ष के पांच भेद हैं। कान से होने वाला ज्ञान श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष है, इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के लिए समझना चाहिए। अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान ये तीन नोइन्द्रियप्रत्यक्ष हैं। __उक्त नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन भेदों में से अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं—भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक। तत्तत् योनिविशेष में जन्म लेने पर जो ज्ञान उत्पन्न हो अर्थात् जिसकी उत्पत्ति में भव प्रधान कारण हो, ऐसा ज्ञान भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहलाता है। यह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान देवों और नारकों को होता है। तपस्या आदि विशेष गुणों के कारण अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहते हैं। यह मनुष्यों और तिर्यचों में पाया जाता है। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान १. आनुगामिक, २. अनानुगामिक, ३. वर्धमान, ४. हीयमान, ५. प्रतिपातिक और ६. अप्रतिपातिक के भेद से छह प्रकार का है। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान के उक्त छह भेदों में से आनुगामिक अवधिज्ञान दो प्रकार का है—१. अन्तगत और २. मध्यगत। इनमें से अन्तगत अवधिज्ञान तीन प्रकार का है—१. पुरतः (आगे से) अन्तगत—जो अवधिज्ञान आगेआगे संख्यात, असंख्यात योजनों तक पदार्थ को जाने, २. मार्गतः (पीछे से) अन्तगत—जो ज्ञान पीछे के संख्यात, असंख्यात योजनों तक के पदार्थ को जाने, ३. पार्वतः (दोनों पाश्र्वो बाजुओं) से अन्तगत—जो ज्ञान दोनों पार्यों में संख्यात, असंख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित पदार्थों को जाने । जो ज्ञान चारों ओर के पदार्थों को जानते हुए ज्ञाता के साथ रहता है, उसे मध्यगत अवधिज्ञान कहते हैं। अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस स्थान पर उत्पन्न होता है, उसी स्थान पर स्थित रहकर अवधिज्ञानी संख्यात, असंख्यात योजन प्रमाण सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध द्रव्यों को जानता है, अन्यत्र चले जाने पर नहीं जानता है। ___ जो अवधिज्ञान पारिणामिक विशुद्धि से उत्तरोत्तर दिशाओं और विदिशाओं में बढ़ता जाता है, उसे वर्धमानक अवधिज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान पारिणामिक संक्लेश के कारण उत्तरोत्तर हीन-हीन होता जाता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है। नारक, देव और तीर्थंकर अवधिज्ञान से युक्त ही होते हैं। वे सब दिशाओं-विदिशाओंवर्ती पदार्थों को जानते हैं, किन्तु सामान्य मनुष्यों और तिर्यंचों के लिए ऐसा नियम नहीं है। वे सब दिशाओं में और एक दिशा में भी क्षयोपशम के अनुसार जानते हैं। ___मनःपर्यायज्ञान पर्याप्त, गर्भज संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज सम्यग्दृष्टि, ऋद्धिसम्पन्न अप्रमत्तसंयत मुनियों में ही पाया जाता है। इसके दो भेद हैं—ऋजुमति और विपुलमति। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा ऋजुमति मनःपर्यायज्ञानी से विपुलमति मनःपर्यायज्ञान वाला अधिक-अधिक विशुद्धि, निर्मलता से पदार्थों को जानता है। वह मनुष्यक्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन में परिचिन्तित अर्थ को जानने वाला है।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy