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________________ १५८ चित्त—हां स्वामिन्! अभिगमनीय है। प्रदेशी - तो फिर, चित्त ! हम इस पुरुष के पास चलें ? चित्त—हां स्वामिन्! चलें । राजप्रश्नीयसूत्र २३९ – तए णं से पएसी राया चित्तेण सारहिणा सद्धिं जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी— तुब्भे णं भंते ! आहोहिया अण्णजीविया ? तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वदासी पएसी ! से जहाणामए अंकवाणिया इवा, संखवाणिया इ वा, दंतवाणिया इ वा, सुकं भंसिउंकामा णो सम्मं पंथं पुच्छर, एवामेव पएसी ! तुब्भे वि विणयं भंसेउकामो नो सम्मं पुच्छसि । से णूणं तव पएसी ममं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - जड्डा खलु भो ! जड्डुं पज्जुवासंति, जाव पवियरित्तए, से णूणं पएसी अट्ठे समत्थे ? हंता ! अत्थि । २३९— तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा, जहां केशी कुमारश्रमण विराजमान थे, वहां आया. और केशी कुमारश्रमण से कुछ दूर खड़े होकर बोला— हे भदन्त ! क्या आप आधोऽवधिज्ञानधारी हैं ? क्या आप अन्नजीवी हैं ? तब केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा- हे प्रदेशी ! जैसे कोई अंकवणिक् (अंकरत्न का व्यापारी) अथवा शंखवणिक्, दन्तवणिक्, राजकर न देने के विचार से सीधा मार्ग नहीं पूछता, इसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी विनयप्रतिपत्ति नहीं करने की भावना से प्रेरित होकर मुझ से योग्य रीति से नहीं पूछ रहे हो । हे प्रदेशी ! मुझे देखकर क्या तुम्हें यह विचार समुत्पन्न नहीं हुआ था कि ये जड़ जड़ की पर्युपासना करते हैं, यावत् मैं अपनी ही भूमि में स्वेच्छापूर्वक घूम-फिर नहीं सकता हूं ? प्रदेशी ! मेरा यह कथन सत्य है ? प्रदेशी—हां आपका कहना सत्य है अर्थात् मेरे मन में ऐसा विचार आया था। २४०– तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वदासी से केणट्टेणं भंते ! तुझं नाणे वा दंसणे वा जेणं तुज्झे मम एयारूवं अज्झत्थियं जाव संकप्पं समुप्पण्णं जाणह पासह ? २४०— तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा—हे भदन्त ! तुम्हें ऐसा कौनसा ज्ञान और दर्शन है कि जिसके द्वारा आपने मेरे इस प्रकार के आन्तरिक यावत् मनोगत संकल्प को जाना और देखा ? २४१ – तए णं से केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी एवं खलु पएसी ! अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहा— आभिणिबोहियणाणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे । से किं तं आभिणिबोहियनाणे ? आभिणिबोहियनाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा— उग्गहो ईहा अवाए धारणा ।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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