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________________ केशी कुमारभ्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन १५७ आया जो केशी कुमारश्रमण के निवासस्थान के पास था। वहां घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया, रथ से उतरा और फिर घोड़ों को खोलकर — छोड़कर प्रदेशी राजा से कहा— हे स्वामिन्! हम यहां घोड़ों के श्रम और अपनी थकावट दूर कर लें। यह सुनकर प्रदेशी राजा रथ से नीचे उतरा और चित्त सारथी के साथ घोड़ों की थकावट और अपनी व्याकुलता को मिटाते हुए उस ओर देखा जहां केशी कुमार श्रमण अतिविशाल परिषद् के बीच बैठकर उच्च ध्वनि से धर्मोपदेश कर रहे थे । यह देखकर उसे मन-ही-मन यह विचार एवं संकल्प उत्पन्न हुआ— जड़ ही जड़ की पर्युपासना करते हैं! मुंड ही मुंड की उपासना करते हैं! मूढ ही मूढों की उपासना करते हैं ! अपंडित ही अपंडित की उपासना करते हैं ! और अज्ञानी ही अज्ञानी की उपासना - सन्मान करते हैं ! परन्तु यह कौन पुरुष है जो जड़, मुंड, मूढ, अपंडित और अज्ञानी होते हुए भी श्री - ही से सम्पन्न है, शारीरिक कांति से सुशोभित है ? यह पुरुष किस प्रकार का आहार करता है ? किस रूप में खाये हुए भोजन को परिणमाता है ? यह क्या खाता है, क्या पीता है, लोगों को क्या देता है, विशेष रूप से उन्हें क्या वितरित करता है— बांटता है— समझाता है ? यह पुरुष इतने विशाल मानव-समूह के बीच बैठकर जोर-जोर से बोल रहा है। उसने ऐसा विचार किया और चित्त सारथी से कहा— चित्त ! जड़ पुरुष ही जड़ की पर्युपासना करते हैं आदि। यह कौन पुरुष है जो ऊंची ध्वनि से बोल रहा है ? इसके कारण हम अपनी ही उद्यानभूमि में भी इच्छानुसार घूम-फिर नहीं सकते हैं। २३८ - तए णं से चित्ते सारही पएसीरायं एवं वयासी –एस णं सामी ! पासावच्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपण्णे जाव' चउनाणोवगए अधोऽवहिए अण्णजीविए । तणं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासी आहोहियं णं वदासि चित्ता ! अण्णाजीवियत्तं णं वदासि चित्ता ! हंता, सामी ! आहोहिअं णं वयामि, अण्णजीवियत्तं णं वयामि सामी ! अभिगमणिज्जेणं चित्ता ! एस पुरिसे ? १. हंता ! सामी ! अभिगमणिज्जे । अभिगच्छामो णं चित्ता ! अम्हे एवं पुरिसं ? हंता सामी ! अभिगच्छामो । २३८— तब चित्त सारथी ने प्रदेशी राजा से कहा – स्वामिन् ! ये पाश्र्वापत्य (भगवान् पार्श्वनाथ की आचार — परम्परा के अनुगामी) केशी कुमारश्रमण हैं, जो जातिसम्पन्न यावत् मतिज्ञान आदि चार ज्ञानों के धारक हैं। ये आधोऽवधिज्ञान (परमावधि से कुछ न्यून अवधिज्ञान) से सम्पन्न एवं (एषणीय) अन्नजीवी हैं। तब आश्चर्यचकित हो प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा— हे चित्त ! यह पुरुष अधोऽवधिज्ञान- सम्पन्न है और अन्नजीवी है ? चित्त—हां स्वामिन्! ये आधोऽवधिज्ञानसम्पन्न एवं अन्नजीवी हैं। प्रदेशी — हे चित्त ! तो क्या यह पुरुष अभिगमनीय है अर्थात् इस पुरुष के पास जाकर बैठना चाहिए ? देखें सूत्र संख्या २१३
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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