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________________ १५६ राजप्रश्नीयसूत्र पधारिए और उन घोड़ों की गति आदि चेष्टाओं का निरीक्षण कीजिये। तब प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा हे चित्त ! तुम जाओ और उन्हीं चार घोड़ों को जोतकर अश्वरथ को यहां लाओ यावत् मेरी इस आज्ञा को वापस मुझे लौटाओ अर्थात् रथ आने की मुझे सूचना दो। चित्त सारथी प्रदेशी राजा के कथन को सुनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ। यावत् विकसितहदय होते हुए उसने अश्वरथ उपस्थित किया और रथ ले आने की सूचना राजा को दी। तत्पश्चात् वह प्रदेशी राजा चित्त सारथी की बात सुनकर और हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् मूल्यवान् अल्प आभूषणों से शरीर को अलंकृत करके अपने भवन से निकला और जहां चार घंटों वाला अश्वरथ था, वहां आया। आकर उस चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ़ होकर सेयविया नगरी के बीचों-बीच से निकला। चित्त सारथी ने उस रथ को अनेक योजनों अर्थात् बहुत दूर तक बड़ी तेज चाल से दौड़ाया—चलाया। तब गरमी, प्यास और रथ की चाल से लगती हवा से व्याकुल-परेशान-खिन्न होकर प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा हे चित्त! मेरा शरीर थक गया है। रथ को वापस लौटा लो। तब चित्त सारथी ने रथ को लौटाया और वहां आया जहां मृगवन उद्यान था। वहां आकर प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा—हे स्वामिन् ! यह मृगवन उद्यान है, यहां रथ को रोक कर हम घोड़ों के श्रम और अपनी थकावट को अच्छी तरह से दूर कर लें। ___ इस पर प्रदेशी राजा ने कहा हे चित्त! ठीक, ऐसा ही करो। केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन २३७– तए णं से चित्ते सारही जेणेव मियवणे, उज्जाणे, जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हेइ, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, तुरए मोएति, पएसिं रायं एवं वयासी-एह णं सामी ! आसाणं समं किलाम सम्म अवणेमो । तए णं से पएसी राया रहाओ पच्चोरुहइ, चित्तेण सारहिणा सद्धिं आसाणं समं किलामं सम्मं अवणेमाणे पासइ जत्थ केसीकुमारसमणं महइमहालियाए महच्चपरिसाए मज्झगए महया सद्देणं धम्ममाइक्खमाणं, पासाइत्ता इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था जड्डा खलु भो ! जडं पज्जुवासंति, मुंडा खलु भो ! मुंडं पज्जुवासंति, मूढा खलु भो ! मूढं पज्जुवासंति, अपंडिया खलु भो ! अपंडियं पज्जुवासंति, निविण्णाणा खलु भो ! निविण्णाणं पज्जुवासंति । से केस णं एस पुरिसे जड्डे मुंडे मूढे अपंडिए निविण्णाणे, सिरीए हिरीए उवगए उत्तप्पसरीरे । एसं णं पुरिसे किमाहारमाहारेइ ? किं परिणामेइ ? किं खाइ, किं पियइ, किं दलइ, किं पयच्छइ, जं णं एस एमहालियाए मणुस्सपरिसाए मझगए महया सद्देणं बूयाए ? एवं संपेहेइ चित्तं सारहिं एवं वयासी चित्ता ! जड्डा खलु भो ! जड़े पज्जुवासंति जाव बूयाए, साए वि णं उज्जाणभूमीए नो संचाएमि सम्मं पकामं पवियरित्तए ! २३७– राजा के 'हां' कहने पर चित्त सारथी ने मृगवन उद्यान की ओर रथ मोड़ा और फिर उस स्थान पर
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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