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________________ १५५ प्रदेशी राजा को लाने हेतु चित्त की युक्ति राजा को धर्मकथा कहते हुए लेशमात्र भी ग्लानि मत करना—खेदखिन्न, उदासीन न होना। हे भदन्त! आप अग्लानभाव से प्रदेशी राजा को धर्मोपदेश देना। हे भगवन् ! आप स्वेच्छानुसार प्रदेशी राजा को धर्म का कथन करना। तब केशी कुमार श्रमण ने चित्त सारथी से कहा हे चित्त! अवसर–प्रसंग आने पर देखा जायेगा। तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केशी कुमार श्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया और फिर जहां चार घंटों वाला अश्वरथ खड़ा था, वहां आया। आकर उस चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ। फिर जिस दिशा से आया था उसी ओर लौट गया। २३६- तए णं से चित्ते सारही कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि अहापंडुरे पभाए कयनियमावस्सए सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, जेणेव पएसिस्स रन्नो गिहे, जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छइ, पएसिं रायं करयल-जाव त्ति कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, एवं वयासी—एवं खलु देवाणुप्पियाणं कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं उवणीया, ते य मए देवाणुप्पियाणं अण्णया चेव विणइया । तं एह णं सामी ! ते आसे चिटुं पासह । तए णं से पएसी राया चित्तं सारहि एवं वयासी—गच्छाहि णं तुमं चित्ता ! तेहिं चेव चउहिं आसेहिं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेहि जाव पच्चप्पिणाहि । तए णं से चित्ते सारही पएसिणा रन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठ-जाव-हियए उवट्ठवेइ, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणइ । तए णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ निग्गच्छइ । जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंटे आसरहं दुरूहइ, सेयवियाए नगरीए मझमझेणं णिग्गच्छइ । तए णं से चित्ते सारही तं रहं णेगाइं जोयणाइं उब्भामेइ । तए णं से पएसी राया उण्हेण य तण्हाए य रहवाएणं परिकिलंते समाणे चित्तं सारहि एवं वयासी-चित्ता ! परिकिलंते मे सरीरे, परावत्तेहि रहं । तए णं से चित्ते सारही रहं परावत्तेइ । जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, पएसिं रायं एवं वयासी-एस णं सामी ! मियवणे उजाणे, एत्थ णं आसाणं समं किलामं सम्मं अवणेमो । तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वदासी–एवं होउ चित्ता ! २३६- तत्पश्चात् कल (आगामी दिन) रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित हो जाने से जब कोमल उत्पल कमल विकसित हो चुके और धूप भी सुनहरी हो गई तब नियम एवं आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर जाज्वल्यमान तेज सहित सहस्ररश्मि दिनकर के चमकने के बाद चित्त सारथी अपने घर से निकला। जहां प्रदेशी राजा का भवन था, उसमें भी जहां प्रदेशी राजा था, वहां आया। आकर दोनों हाथ जोड़ यावत् अंजलि करके जय-विजय शब्दों से प्रदशी राजा का अभिनन्दन किया और इस प्रकार बोला—कंबोज देशवासियों ने देवानुप्रिय के लिए जो चार घोडे उपहार-स्वरूप भेजे थे, उन्हें मैंने आप देवानुप्रिय के योग्य प्रशिक्षित कर दिया है। अतएव स्वामिन् ! आज आप
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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