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________________ केशी कुमारश्रमण का सेयविया में पदार्पण १४९ नाडएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणच्चिज्जमाणे उवगाइज्जमाणे उवलालिज्जमाणे इवें सद्दफरिस जाव विहरइ । २२९- तत्पश्चात् चित्त सारथी सेयविया नगरी में आ पहुंचा। सेयविया नगरी के मध्य भाग में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहां प्रदेशी राजा का भवन था, जहां भवन की बाह्य उपस्थानशाला थी, वहां आया। आकर घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया, रथ से नीचे उतरा और उस महार्थक यावत् भेंट को लेकर जहां प्रदेशी राजा था, वहां पहुंचा। पहुंच कर दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से वधाकर प्रदेशी राजा के सन्मुख उस महार्थक यावत् (महर्घ, महान् पुरुषों के योग्य, राजाओं के अनुरूप भेंट) को उपस्थित किया। इसके बाद प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से वह महार्थक यावत् भेंट स्वीकार की और सत्कार-सम्मान करके चित्त सारथी को विदा किया। प्रदेशी राजा से विदा लेकर चित्त सारथी हृष्ट यावत् विकसितहृदय हो प्रदेशी राजा के पास से निकला और जहां चार घंटों वाला अश्वरथ था, वहां आया। उस चातुर्धट अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ तथा सेयविया नगरी के बीचों-बीच से गुजर कर अपने घर आया। घर आकर घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया और रथ से नीचे उतरा। इसके बाद स्नान करके यावत् श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर जोर-जोर से बजाये जा रहे मृदंगों की ध्वनिपूर्वक उत्तम तरुणियों द्वारा किये जा रहे बत्तीस प्रकार के नाटकों आदि के नृत्य, गान और क्रीड़ा (लीला) को सुनता, देखता और हर्षित होता हुआ मनोज्ञ शब्द, स्पर्श यावत् (रस, रूप और गंध बहुल मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता हुआ) विचरने लगा। केशी कुमारश्रमण का सेयविया में पदार्पण २३०- तए णं केसी कुमारसमणे अण्णया कयाइ पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जासंथारगं पच्चप्पिणइ सावत्थीओ नगरीओ कोट्ठगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पंचहिं अणगार सएहिं जाव विहरमाणे जेणेव केइयअद्धे जणवए जेणेव सेयविया नगरी, जेणेव मियवणे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ, अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । ___ २३०– तत्पश्चात् किसी समय प्रातिहारिक (वापिस लौटाने योग्य) पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि उन-उनके स्वामियों को सौंपकर केशी कुमारश्रमण श्रावस्ती नगरी और कोष्ठक चैत्य से बाहर निकले। निकलकर पांच सौ अन्तेवासी अनगारों के साथ यावत् विहार करते हुए जहां केकय-अर्ध जनपद था, उसमें जहां सेयविया नगरी थी और उस नगरी का मृगवन नामक उद्यान था, वहां आये। यथाप्रतिरूप अवग्रह (वसतिका की आज्ञा अनुमति) लेकर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन- पीठ आदि को लौटाने के उपर्युक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में साधु पीठ, फलक, संस्तारक आदि स्वयं गृहस्थ के यहां से गवेषणापूर्वक मांग कर लाते थे और उपयोग कर लेने के बाद स्वयं ही उनके स्वामियों को वापस लौटाते थे। ____२३१- तए णं सेयवियाए नगरीए सिंघाडग महया जणसद्दे वा० परिसा णिग्गच्छइ । तए १. देखें सूत्र संख्या २१४
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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