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________________ १४८ राजप्रश्नीयसूत्र उवनिमंतिजाह, एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणेज्जाह । तए णं ते उज्जाणपालगा चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-तुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी तहत्ति, आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति । २२८ – तत्पश्चात् (केशी कुमारश्रमण से आश्वासन मिलने के पश्चात्) चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण की वंदना की, नमस्कार किया और केशी कुमारश्रमण के पास से एवं कोष्ठक चैत्य से बाहर निकला। निकलकर जहां श्रावस्ती नगरी थी, जहां राजमार्ग पर स्थित अपना आवास था, वहां आया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर लाओ। इसके बाद जिस प्रकार पहले सेयविया नगरी से प्रस्थान किया था उसी प्रकार श्रावस्ती नगरी से निकल कर यावत् बीच-बीच में विश्राम करता हुआ— पड़ाव डालता हुआ, कुणाला जनपद के मध्य भाग में से चलता हुआ जहां केकय-अर्ध देश था, उसमें जहां सेयविया नगरी थी और जहां उस नगरी का मृगवन नामक उद्यान था, वहां आ पहुंचा। वहां आकर उद्यानपालकों (चौकीदारों एवं मालियों) को बुलाकर इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! जब पार्श्वपत्य (भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में विचरने वाले) केशी नामक कुमारश्रमण श्रमणचर्यानुसार अनुक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए यहां पधारें तब देवानुप्रियो! तुम केशी कुमारश्रमण को वंदना करना, नमस्कार करना। वंदना-नमस्कार करके उन्हें यथाप्रतिरूप-साधुकल्पानुसार वसतिका की आज्ञा देना तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक आदि के लिए उपनिमंत्रित करना—प्रार्थना करना और इसके बाद मेरी इस आज्ञा को शीघ्र ही मुझे वापस लौटाना अर्थात् जब केशी कुमारश्रमण का यहां पदार्पण हो जाये तो उनके आगमन की मुझे सूचना देना। ____ चित्त सारथी की इस आज्ञा को सुनकर वे उद्यानपालक हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसितहृदय होते हुए दोनों हाथ जोड़ यावत् इस प्रकार बोले___ हे स्वामिन् ! 'आपकी आज्ञा प्रमाण' और यह कहकर उसकी आज्ञा को विनयपूर्वक स्वीकार किया। २२९- तए णं चित्ते सारही जेणेव सेयविया णगरी तेणेव उवागच्छइ, सेयवियं नगरि मझमझेणं अणुपविसइ, जेणेव पएसिस्स रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, तं महत्थं जाव गेण्हइ, जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छइ, पएसिं रायं करयल जाव वद्धावेत्ता तं महत्थं जाव (महग्धं, महरिहं, रायरिहं पाहुडं) उवणेइ । तए णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थं जाव पडिच्छइ चित्तं सारहिं सक्कारेइ सम्माणेइ पडिविसज्जेइ । तए णं से चित्ते सारही पएसिणा णण्णा विसज्जिए समाणे हट्ठ जाव हियए पएसिस्स रनो अंतियाओ पडिनिक्खमइ, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, सेयवियं नगरि मझमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ हाए जाव उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसइबद्धएहिं
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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