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________________ १५० राजप्रश्नीयसूत्र णं ते उज्जाणपालगा इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा हट्टतुटु जाव हियया जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छन्ति, केसिं कुमारसमणं वंदंति नमसंति, अहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणंति, पाडिहारिएणं जाव संथारएणं उवनिमंतंति, णामं गोयं पुच्छंति, ओधारेंति, एगंतं अवक्कमंति, अन्नमन्नं एवं वयासी जस्स णं देवाणुप्पिया ! चित्ते सारही दंसणं कंखइ, दंसणं पत्थेइ, दंसणं पीहेइ, दंसणं अभिलसइ, जस्स णं णामगोयस्स वि सवणयाए हट्टतुट्ठ जाव हियए भवति, से णं एस केसी कुमारसमणे पुव्वाणुपव्विं चरमाणे गामाणुगा दूइज्जमाणे इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे इहेव सेयवियाए णगरीए बहिया मियवणे उन्जाणे अहापडिरूवं जाव विहरइ । तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! चित्तस्स सारहिस्स एयमलृ पियं निवेएमो, पियं से भवउ । अण्णमण्णस्स अंतिए एयमटुं पडिसुणेति । जेणेव सेयविया णगरी जेणेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे, जेणेव चित्तसारही तेणेव उवागच्छंति, चित्तं सारहिं करयल जाव वद्धावेंति एवं वयासी–जस्स णं देवाणुप्पिया ! दसणं कंखंति जाव अभिलसंति, जस्स णं णामगोयस्स वि सवणयाए हट्ठ जाव भवह, से णं अयं केसी कुमारसमणे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे समोसढे जाव विहरइ । २३१- तत्पश्चात् (केशी कुमारश्रमण का आगमन होने के पश्चात्) सेयविया नगरी के शृंगाटकों आदि स्थानों पर लोगों में बातचीत होने लगी। यावत् परिषद् वंदना करने निकली। वे उद्यानपालक भी इस संवाद को सुनकर और समझ कर हर्षित, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसितहृदय होते हुए जहां केशी कुमारश्रमण थे, वहां आये। आकर केशी कुमारश्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया एवं यथाप्रतिरूप अवग्रह (स्थान सम्बन्धी अनुमति) प्रदान की। प्रातिहारिक यावत् संस्तारक आदि ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रित किया अर्थात् उनसे लेने की प्रार्थना की। इसके बाद उन्होंने नाम एवं गोत्र पूछकर (चित्त सारथी की आज्ञा का) स्मरण किया फिर एकान्त में वे परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार बातचीत करने लगे—'देवानुप्रियो ! चित्त सारथी जिनके दर्शन की आकांक्षा करते हैं, जिनके दर्शन की प्रार्थना करते हैं, जिनके दर्शन की स्पृहा—चाहना करते हैं, जिनके दर्शन की अभिलाषा करते हैं, जिनका नाम, गोत्र सुनते ही हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहदय होते हैं, वे यही केशी कुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वी से गमन करते हुए, एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए यहां आये हैं, यहां प्राप्त हुए हैं, यहां पधारे हैं तथा इसी सेयविया नगरी के बाहर मृगवन उद्यान में यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रहण करके यावत् विराजते हैं। अतएव हे देवानुप्रियो ! हम चलें और चित्त सारथी के प्रिय इस अर्थ को (केशी कुमारश्रमण के आगमन होने के समाचार को) उनसे निवेदन करें। हमारा यह निवेदन उन्हें बहुत ही प्रिय लगेगा।' एक दूसरे ने इस विचार को स्वीकार किया। इसके बाद वे वहां आये जहां सेयविया नगरी, चित्त सारथी का घर तथा घर में जहां चित्त सारथी था। वहां आकर दोनों हाथ जोड़ यावत् चित्त सारथी को बधाया और इस प्रकार निवेदन किया हे देवानुप्रिय ! आपको जिनके दर्शन की इच्छा है यावत् आप अभिलाषा करते हैं और जिनके नाम एवं गोत्र को सुनकर आप हर्षित होते हैं, ऐसे केशी कुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वी से विचरते हुए यहां (मृगवन उद्यान में) पधार गये हैं यावत् विचर रहे हैं।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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