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राजप्रश्नीयसूत्र
चेव वित्तिं कप्पेमाणे 'हण'-' छिंद'- 'भिंद' - पवत्तए, लोहिय-पाणी, पावे, चंडे, रुद्दे, खुद्दे, साहस्सीए, उक्कंचणवंचण-माया-नियडि - कूड - कवड - सायिसंपओग-बहुले, निस्सीले, निव्वए, निग्गुणे, निम्मेरे, निप्पच्चक्खाणपोसहोववासे, बहूणं दुप्पय- चउप्पयमिय - पसु पक्खी - सिरीसिवाण घायाए बहाए उच्छायणयाए अधम्मकेऊ, समुट्ठिए गुरूण णो अब्भुट्ठेति, णो विणयं पउंजइ, सयस्स वि य णं जणवयस्स) णो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तइ, तं कहं णं अहं चित्ता ! सेयवियाए नगरीए समोसरिस्सामि ?
२२६ – चित्त सारथी द्वारा दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार से विनति किये जाने पर केशी कुमार श्रमण ने चित्त सारथी से कहा— हे चित्त ! जैसे कोई एक कृष्णवर्ण एवं कृष्णप्रभा वाला अर्थात् हरा-भरा यावत् अतीव मनमोहक सघन छाया वाला वनखंड हो तो हे चित्त ! वह वनखंड अनेक द्विपद (मनुष्य आदि), चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपों आदि के गमन योग्य रहने लायक है, अथवा नहीं है ?
चित्त ने उत्तर दिया—हां भदन्त ! वह उनके गमन योग्य वास करने योग्य होता है ।
इसके पश्चात् पुनः केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी से पूछा— और यदि उसी वनखण्ड में, हे चित्त ! उन बहुत-से द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सर्प आदि प्राणियों के रक्त-मांस को खाने वाले भीलुंगा नामक पापशकुन (पशुओं का शिकार करने वाले पापिष्ठ भील) रहते हों तो क्या वह वनखंड उन अनेक द्विपदों यावत् सरीसृपों के रहने योग्य हो सकता है ?
चित्त ने उत्तर दिया यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ऐसी स्थिति में वह वास करने योग्य नहीं हो सकता है। पुनः केशी कुमारश्रमण ने पूछा—क्यों ? अर्थात् वह उनके लिए अभिगमनीय—प्रवेश करने योग्य, रहने योग्य क्यों नहीं हो सकता ?
चित्त सारथी—क्योंकि भदन्त ! वह वनखंड उपसर्ग ( त्रास, भय, दुःख) सहित होने से रहने योग्य नहीं है।
यह सुनकर केशी कुमार श्रमण ने चित्त सारथी को समझाने के लिए कहा—इसी प्रकार हे चित्त ! तुम्हारी सेयविया नगरी कितनी ही अच्छी हो, परन्तु वहां भी प्रदेशी नामक राजा रहता है। वह अधार्मिक यावत् (अधर्म को प्रिय मानने वाला, अधर्म का कथन और प्रचार करने वाला, अधर्म का अनुसरण करने वाला, , सर्वत्र अधर्म-प्रवृत्तियों को भी देखने वाला, विशेषरूप में अधार्मिक आचार-विचारों का प्रचार करने वाला अथवा अधर्ममय प्रवृत्तियों का प्रचलन —— उत्पन्न करने वाला, प्रजा को अधर्माचरण की ओर प्रेरित करने वाला, अधर्ममयस्वभाव और आचार वाला, अधर्म से ही आजीविका चलाने वाला है। अपने आश्रितों को सदैव जीवों को मारने, छेदने, भेदने की आज्ञा देने वाला है। उसके हाथ सदा खून से भरे रहते हैं। वह साक्षात् पाप का अवतार है। स्वभाव से प्रचंड क्रोधी, भयानक, क्षुद्र - अधम और बिना विचारे प्रवृत्ति करने वाला है। धूर्त - बदमाशों को प्रोत्साहन देने वाला, उकसाने वाला, लांघ — रिश्वत लेने वाला, वंचक — धोखा देने वाला, मायावी, कपटी, वकवृत्तिवत् प्रवृत्ति करने वाला, कूटकपट करने में चतुर और किसी-न-किसी उपाय से दूसरों को दुःख देने वाला है। शील और व्रतों से रहित है, क्षमा आदि गुणों का अभाव होने से निर्गुण है, निर्मर्याद है, उसके मन में प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि करने का विचार ही नहीं आता है। अनेक द्विपद, चतुष्पद मृग, पशु, पक्षी, सर्प आदि सरीसृपों की हत्या करने, उन्हें मारने, प्राणरहित करने, उनका विनाश करने से साक्षात् अधर्मरूप केतु — जैसा है। गुरुजनों का कभी विनय नहीं करता है, उनको