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________________ १४४ राजप्रश्नीयसूत्र महत्थं जाव पाहुडं उवणेहि । मम पाउग्गं च णं जहाभणियं अवितहमसंदिद्धंवयणं विन्नेवहि त्ति कट्टु विज्जि । २२३ – तत्पश्चात् अर्थात् चित्त सारथी को श्रावस्ती नगरी में रहते-रहते पर्याप्त समय हो जाने के पश्चात् जितशत्रु राजा ने किसी समय महाप्रयोजनसाधक यावत् प्राभृत (उपहार) तैयार किया और चित्त सारथी को बुलाया । बुलाकर उससे इस प्रकार कहा— हे चित्त ! तुम वापस सेयविया नगरी जाओ और महाप्रयोजनसाधक यावत् इस उपहार को प्रदेशी राजा के सन्मुख भेंट करना तथा मेरी ओर से विनयपूर्वक उनसे निवेदन करना कि आपने मेरे लिए जो संदेश भिजवाया है, उसे उसी प्रकार अवितथ——– सत्य, प्रमाणिक एवं असंदिग्ध रूप से स्वीकार करता हूं। ऐसा कहकर चित्त सारथी को सम्मानपूर्वक विदा किया। चित्त की केशी कुमारश्रमण से सेयविया पधारने की प्रार्थना तं २२४ – तए णं से चित्ते सारही जियसत्तुणा रन्ना विसज्जिए समाणे तं महत्थं जाव (महग्घं, महरिहं, रायरिहं पाहुडं) गिण्हइ जाव जियसत्तुस्स रण्णो अंतियाओ पडिनिक्खमइ । सावत्थी नयरी मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ । जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ, महत्थं जाव ठवइ, ण्हाए जाव ( कयबलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाइं पवर परिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकिय) सरीरे सकोरंट०१ महया०२ पायचारविहारेण महया पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते रायमग्गमोगाढाओ आवासाओ निग्गच्छइ, सावत्थीनगरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छति, जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छति, केसी कुमारसमणस्स अन्ति धम्मं सोच्चा जाव (निसम्म हट्ठ- तुट्ठ- चित्तमाणंदिए - पीइमणे - परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता केसि कुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदई णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता) एवं वयासी — एवं खलु अहं भंते ! जियसत्तुणा रन्ना पएसिस्स रन्नो इमं महत्थं जाव उवणेहि त्ति कट्टु विसज्जिए, तं गच्छामि णं अहं भंते! सेयवियं नगरिं, पासादीया णं भंते ! सेयविया णगरी, एवं दरिसणिज्जा णं भंते ! सेयविया णगरी, अभिरूवा णं भंते ! सेयविया नगरी, पडिरूवा णं भंते ! सेयविया नगरी, समोसरह णं भंते ! तुब्भे सेयवियं नगरिं । २२४— तत्पश्चात् जितशत्रु राजा द्वारा विदा किये गये चित्त सारथी ने उस महाप्रयोजनसाधक यावत् उपहार को ग्रहण किया यावत् जितशत्रु राजा के पास से रवाना होकर श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच से निकला। निकल कर राजमार्ग पर स्थित अपने आवास में आया और उस महार्थक यावत् उपहार को एक ओर रखा। फिर स्नान किया, यावत् शरीर को विभूषित किया, कोरंट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर विशाल जनसमुदाय के साथ पैदल ही राजमार्ग स्थित आवासगृह से निकला और श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच से चलता हुआ वहां आया जहां कोष्ठक चैत्य था, उसमें भी जहां केशी कुमारश्रमण विराजमान थे। वहां आकर केशी कुमारश्रमण से धर्म सुनकर १. २. 1 यहां '०' से 'मल्लदामेणं छत्तेणं धरेज्जमाणेणं' पदों का संग्रह किया है। यहां '०' से 'भडचडगररहपहकरविंद परिक्खित्ते' पद का संग्रह किया है।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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